ई-पुस्तकें >> गोस्वामी तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदाससूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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महाकवि तुलसीदास की पद्यात्मक जीवनी
[56]
वह ऐसी जो अनुकूल युक्ती,
जीव के भाव की नहीं मुक्ति;
वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;
जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,
विश्व के प्राण के भी ऊपर;
माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।
[57]
मृत्तिका एक कर सार ग्रहण
खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,
त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,
पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,
ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,
बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।
[58]
वह रत्नावली नाम-शोभन
पति-रति में प्रतन, अतः लोभन
अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,
प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,
प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;
मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-
[59]
लखती ऊषारुण, मौन, राग,
सोते पति से वह रही जाग;
प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;
प्रिय के जड़ युग कूलों को भर
बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;
नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।
[60]
धीरे-धीरे वह हुआ पार
तारा-द्युति से बँध अन्धकार;
एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;
लख रत्नावली खुली सहास;
अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;
बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-
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