लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> वीर बालक

वीर बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9731
आईएसबीएन :9781613012840

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

178 पाठक हैं

वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ


इधर श्रीजानकी जी के मुख से ये शब्द निकले और उधर युद्धभूमि में सब लोग निद्रा से जगे हुए के समान उठ बैठे। उनके कटे हुए अंग भी जुड़ गये थे। किसी के शरीर पर चोट का कोई चिह्न नहीं था। शत्रुघ्नजी ने देखा कि उनके मुकुट की मणि नहीं है। पुष्कल को अपना किरीट, गहने तथा अस्त्र-शस्त्र नहीं मिले। यज्ञीय अश्व सामने खड़ा था। उसे लेकर ये सब लोग अयोध्या लौट आये और वहाँ सब बातें उन्होंने भगवान् श्रीराम को सुनायीं।
अश्व के आ जाने पर यज्ञ प्रारम्भ हुआ। दूर-दूर से ऋषिगण अपने शिष्यों के साथ अयोध्या पधारे। महर्षि वाल्मीकि भी लव-कुश तथा अपने अन्य शिष्यों के साथ आये और सरयू के किनारे नगर से कुछ दूर सबके साथ ठहरे। महर्षि के आदेश से लव-कुश मुनियों के आश्रमों में, राजाओं के शिविरों में तथा नगर की गलियों में रामायण का गान करते हुए घूमा करते थे। उनके स्पष्ट, मधुर एवं मनोहर गान को सुनकर लोगों की भीड़ उनके साथ लगी रहती थी। सर्वत्र उन दोनों के गान की ही चर्चा होने लगी। एक दिन भरतजी के साथ श्रीराम ने भी राजभवन पर ऊपर से इन दोनों बालकों का गान सुना। आदरपूर्वक दोनों को भीतर बुलाकर सम्मानित किया गया और वहाँ उनका गान सुना गया। अठारह सहस्र स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कारस्वरूप में उन्हें भगवान् राम ने देना चाहा; किंतु लव-कुश ने कुछ भी लेना अस्वीकार कर दिया। लव-कुश के कहने से यज्ञकार्य से बचे समय में रामायण-गान के लिये एक समय निश्चित कर दिया गया। उस समय समस्त प्रजाजन, आगत नरेश, ऋषिगण तथा वानरादि रामायण का वह अद्भुत गान सुनते थे। कई दिनों में पूरा रामचरित सुनने से सबको ज्ञात हो गया कि ये दोनों बालक श्रीजनककुमारी सीता के ही पुत्र हैं।
मर्यादापुरुषोत्तम ने श्रीजानकीजी को सब लोगों के सम्मुख सभा मं  आकर अपनी शुद्धता प्रमाणित करनेके लिये शपथ लेने को कहकर बुलवाया। वे जगजननी माता जानकी वहाँ आयीं और उन्होंने शपथ के रूप में कहा- 'यदि मैं सब प्रकारसे पवित्र हूँ तो पृथ्वीदेवी मुझे अपने भीतर स्थान दें।‘
पृथ्वी बड़े भारी शब्द के साथ फट गयी। स्वयं भूदेवी रत्नसिंहासन लिये प्रकट हुईं और उस पर बैठाकर वे श्रीसीताजी को ले गयीं। फटी हुई पृथ्वी फिर बराबर हो गयी। अब इसके पश्चात् कहने को कुछ नहीं रह जाता। लव-कुश को जन्म से पिता नहीं मिले थे और जब पिता मिले, तब उनकी स्नेहमयी माता नहीं रहीं। अयोध्या के युवराज होने का सुख भला उन्हें क्या सुखी कर सकता था।

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book