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वीर बालक
वीर बालक
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9731
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आईएसबीएन :9781613012840 |
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178 पाठक हैं
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
महाराज कुमारगुप्त ने अपने वीर पुत्र को हृदय से लगा लिया। स्कन्दगुप्त को युद्ध में जाने की आज्ञा मिल गयी। उनके साथ मगध के दो लाख वीर सैनिक चल पड़े। पटना से चलकर पंजाब को पार करके हिमालय की बर्फ से ढकी सफेद चोटियों पर वे वीर सैनिक बढ़ गये। भयानक सर्दी, शीतल हवा और बर्फ के तूफान भी उन्हें आगे बढने से रोक नहीं सके।
हूणों ने सदा दूसरे देशों पर आक्रमण किया था। कोई आगे बढ़कर उन पर भी आक्रमण कर सकता है, यह उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। जब उन्होंने देखा कि हिमालय की चोटी पर से बड़ी भारी सेना उन पर आक्रमण करने उतर रही है तो वे भी लड़ने को तैयार हो गये। उन्हें सबसे अधिक आश्चर्य यह हुआ कि उस पर्वत से उतरती सेना के आगे एक छोटी अवस्था का बालक घोड़े पर बैठा नंगी तलवार लिये शंख बजाता आ रहा है। वे थे युवराज स्कन्दगुप्त।
युद्ध आरम्भ हो गया। युवराज स्कन्दगुप्त जिधर से निकलते थे, शत्रुओं को काट-काटकर ढेर कर देते थे। थोड़ी देर के युद्ध में ही हूणों की हिम्मत छूट गयी। वे लोग इधर-उधर भागने लगे।
युवराज स्कन्दगुप्त फिर हिमालय को पारकर अपने देश में उतरे, उनका स्वागत करने के लिये लाखों मनुष्यों की भीड़ वहाँ पहले से खड़ी थी। मगध में तो राजधानी से पाँच कोस तक का मार्ग सजाया गया था। उनके स्वागत के लिये पूरे देश में उस दिन उत्सव मनाया गया।
यही युवराज स्कन्दगुप्त आगे जाकर भारत के सम्राट हुए। आज के ईरान और अफगानिस्तान तक इन्होंने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। इनके-जैसा पराक्रमी वीर भारत को छोड़कर दूसरे देश के इतिहास में मिलना कठिन है। इन्होंने दिग्विजय करके अश्वमेध यज्ञ किया था। वीर होने के साथ ये बहुत ही धर्मात्मा, दयालु और न्यायी सम्राट हुए थे।
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