ई-पुस्तकें >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
वीर बालक भरत
ऋषभदेवके पुत्र भरतजी योगी त्यागी ज्ञानी।
पर राजा दुष्यन्त-पुत्र थे भरत अर बल-खानी।।
अपना देश नाम से दोनों के 'भारत' कहलाता।
त्याग ज्ञान औ बल पौरुष की है महिमा बतलाता।।
ऋषभपुत्र राजर्षि भरत की पढ़ना कभी कहानी।
भरत दूसरे के बचपन की है वीरता बतानी।।
जन्म हुआ था ऋषि-आश्रम में माता ने था पाला।
नन्हेंपन से ही निर्भय था वह शकुन्तला-लाला।।
घुटनों चलने लगे भरत तब रेंग निकल जाते थे।
बाघ-सिंह के पास पहुँच मुख उनका थपकाते थे।।
जब वे चलने लगे पकड़ लाते सिंहनि के बच्चे।
गुर्राने से धमकाते थे, नहीं तनिक थे कच्चे।।
रह मैं तेरे दाँत गिनूँगा' बड़े सिंह से कहते।
उसके मुँह में हाथ डालकर सचमुच गिनते रहते।।
चार बरस के भरत खींचते कान बाघ का जाकर।
हँसते बैठ पीठ पर उसकी ताली बजा-बजाकर।।
छड़ी दिखाते सिंह-रीछ को - 'बैठ! नहीं मारूँगा।
लड़ ले कुश्ती पकड़ पटक दूँ क्या तुझसे हारूँगा'।।
पूँछ हिलाते बाघ-सिंह थे अपना प्यार दिखाकर।
हाथी-रीछ खिलाते उनको मीठे फल ला-लाकर।।
ऐसे निर्भय वीर पुत्र से माता खुश रहती थी।
'मेरा पुत्र देश का पालन कर लेगा' कहती थी।।
होकर बडे? भरत धर्मात्मा राजा हुए महान।
अबतक वीर किया करते हैं उनका गौरव गान।।
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