ई-पुस्तकें >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
बर्बरीक अतुलबली था, धर्मात्मा था और विनयी भी था; किंतु इस समय अहंकारवश उसने धर्म की मर्यादा तोड़ दी। दोनों सेनाओं के अनेक वीरों को देवताओं से, ऋषियों से वरदान प्राप्त थे। उन सब वरदानों को व्यर्थ करने से देवता, धर्म एवं तप की मर्यादा ही नष्ट हो जाती। धर्म की मर्यादा के लिये ही अवतार धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की यह बात सुनकर अपने चक्र से उसका सिर काट दिया।
बर्बरीक के मरने पर सब लोग भौंचक्के रह गये। पाण्डव शोक में डूब गये। घटोत्कच मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। उसी समय वहाँ चौदह देवियां आयीं। उन्होंने घटोत्कच तथा पाण्डवों को बताया कि बर्बरीक पूर्वजन्म में सूर्यवर्चा नामक यक्ष था। देवता ब्रह्माजी के साथ जब पृथ्वी का भार उतारने के लिये मेरु पर्वत पर भगवान् नारायण की स्तुति कर रहे थे, तब अहंकारवश उस यक्ष ने कहा- 'पृथ्वी का भार तो मैं ही दूर कर दूँगा।' उसके गर्व के कारण रुष्ट होकर ब्रह्माजी ने शाप दे दिया कि भूमि का भार दूर करते समय भगवान् उसका वध करेंगे।' ब्रह्माजी के उस शाप को सत्य करने के लिये ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने बर्बरीक को मारा है।
भगवान के आदेश से देवियों ने बर्बरीक के सिर को अमृत से सींचकर राहु के सिर के समान अजर-अमर बना दिया। उस सिर ने युद्ध देखने की इच्छा प्रकट की, इसलिये भगवान ने उसे एक पर्वत पर स्थापित कर दिया और जगत में पूजित होने का वरदान दिया।
महाभारत-युद्ध के अन्त में धर्मराज युधिष्ठिर भगवान से बार-बार कृतज्ञ हो रहे थे कि उन वासुदेव के अनुग्रह से ही हमें विजय प्राप्त हुई है। भीमसेन ने सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों को तो मैंने मारा है, फिर श्रीकृष्ण की इतनी प्रशंसा धर्मराज क्यों कर रहे हैं? भीमसेन ने जब यह बात कही, तब अर्जुन ने उन्हें समझाना चाहा- 'मेरे-आपके द्वारा ये भीष्म, द्रोण आदि त्रिलोकजयी शूर नहीं मारे गये। हमलोग तो निमित्त मात्र हैं। युद्ध में विजय तो किसी अज्ञात पुरुष के द्वारा हुई, जिसे मैं सदा अपने आगे-आगे चलता देखता था।'
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