ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''वे घर पर नहीं मिलेंगे...आठ बजे ही चले गये थे। कह गए थे रात को देर से लौटेंगे।''
पूनम अर्दली की बात सुनकर बुरी तरह झुंझला गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने दिल की भड़ास कैसे निकाले। उधर रुख़साना के साथ रशीद एक टैक्सी में बैठा बारामूला की सड़क पर जा रहा था।
कुछ देर बाद टैक्सी दो-चार गलियों में से घूमती हुई एक छोटे से गांव के बाहर आ रुकी। सड़क के किनारे एक टीले पर छोटा-सा मकान था। रुख़साना ने उस मकान की ओर संकेत करते हुए रशीद से कहा-''चलिए।''
''बड़ी उजाड़ सी जगह है। कहां चलना होगा?'' रशीद ने चारों ओर देखते हुए कहा।
''बस, उसी मकान तक...वही है पीर बाबा का मकान!'' रुख़साना ने टैक्सी से उतरते हुए कहा।
''इस घटिया से मकान में वे रहते हैं?'' रशीद ने टूटे-फूटे मकान पर घृणा-भरी दृष्टि डालते हुए कहा।
''तोबा कीजिए साहब तोबा...बहुत पहुंचे हुए बुजुर्ग हैं बाबा, उनकी शान में गुस्ताख़ी मत कीजिए। बड़े-बड़े लोगों की हिम्मत नहीं होती उनके सामने ज़बान खोलने की।'' ड्राइवर ने डर से कांपते हुए बीच में कहा।
''अच्छा...!'' रशीद ने व्यंग से कहा।
''अजी हुजूर...आज नौ साल से वे चुप शाह का रोज़ा रखे हुए हैं। किसी से बात नहीं करते। लेकिन गरज़मंद ऐसे-ऐसे हैं कि टूट पड़ते हैं। जिसकी जानिब करम की नज़र उठ जाती है, उसकी बिगड़ी बन जाती है। आप बड़े खुश नसीब हैं, जो बाबा के अस्ताने पर हाज़िर हो गए हैं।'' ड्राइवर एक सांस में बोल गया।
''अच्छा, तुम यहीं ठहरो, हम बाबा का नयाज़ हासिल करके आते हैं।'' रशीद ने कहा और रुख़साना के साथ उस टीले पर चढ़ने लगा।
टीले की चढ़ाई चढ़कर जब वे मकान के दरवाज़े पर पहुंचे तो अंदर काफी चहल-पहल थी। दरवाज़े के दाईं ओर अंगीठी पर एक देग चढ़ी हुई थी, जिसमें कहवा उबल रहा था। देग के पास बैठा हुआ एक बूढ़ा आदमी छोटी-छोटी प्यालियों में कहवा डाल रहा था। कहवे के लिए बाबा के मुरीदों की एक लम्बी पंक्ति लगी हुई थी। शायद यही बाबा का प्रसाद था। लोग बड़ी श्रद्धा से हाथों में प्यालियां लिए कहवा पी रहे थे। मकान के अंदर पहुंचने से पहले रशीद और रुख़साना को भी यह प्रसाद लेना पड़ा। रशीद ने पहला घूट पीते हुए बुरा सा मुंह बनाया। इतना बेस्वाद कहवा उसने कभी नहीं पिया था। लेकिन बाबा का ध्यान करते हुए उसे पूरी प्याली पीनी पड़ी।
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