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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

अब्बा की बात सुनकर सलमा ने निगाहें झुका लीं और खामोशी से रशीद के हाथों पर मरहम लगाने लगी। थोड़ी देर के लिए मिर्ज़ा साहब बाहर चले गए तो वह रशीद की ओर देखती हुई धीरे से बोली-''आपने ख़ाहमख़ाह अपने आपको पराई आग में जला लिया।''

''लेकिन मुझे इसका कोई ग़म नहीं।''

''क्यों?''

''इतनी दिलकस मुलाकात जो मयस्सर हो गई।''

तभी रशीद का दोस्त असलम उसे ढूंढता हुआ बैठक में आ गया। सलमा ने किसी और की उपस्थिति में वहां रुकना उचित न समझा और अनायास अंदर की ओर भागा। असलम ने अर्थपूर्ण दृप्टि से पहले रशीद को और फिर उस भागते हुए सौंदर्य को देखा और कोई उपयुक्त व्यंग का तीर चलाने ही वाला था कि मिर्ज़ा जी को आते देखकर चुप रह गया। झट रशीद के हाथों पर फिर से मरहम लगाते हुए धीरे से बोला-''दोस्त! फफोलों के ये निशान तो इस मरहम से मिट जाएंगे लेकिन जो घाव तुम्हारे दिल पर लगा है, उसका मरहम कहां से लाओगे?''

रशीद याद की सुन्दर वादी ही में खोया हुआ था कि अचानक दरवाज़े पर किसी जीप गाड़ी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। कोई इतनी रात गए उससे मिलने क्यों आया है? यह सोचकर वह कुछ डर सा गया।

उसने झट लैम्प आफ़ कर दिया और आराम-कुर्सी से उठकर दरवाज़े तक चला आया। उसने दरवाज़े का पर्दा हटाकर शीशे पर जमीं धुंध को साफ किया और बाहर झांकने लगा। मेजर सिंधु की जीप गाड़ी को पहचानने में उसे देर नहीं लगी, जिसमें से शाहबाज़ उतर कर अंदर की ओर आ रहा था। इतनी रात गए शाहबाज़ को देखकर उसे आश्चर्य हुआ।

जैसे ही शाहबाज़ ने हौले से दरवाज़े पर दस्तक दी, रशीद ने दोबारा कमरे की बत्ती जला दी और हाउस कोट पहनते हुए दरवाज़ा खोल दिया।

शाहबाज़ ने अंदर आते ही रशीद को सैल्यूट किया और दाएं-बाएं देखता हुआ उसकी ओर बढ़ा। रशीद ने झट दरवाज़ा बंद कर के पर्दा फैला दिया और पलटकर पूछा-''क्या बात है शाहबाज़...इतनी रात गए?''

''एक ज़रूरी काम से आया हूं सर।''

''क्या काम है?''

''555 का पैग़ाम है सर...कल सुबह यू० एन० ओ० में रखे जानेवाले सवालों के बारे में यहां मीटिंग होने वाली है, उसकी रिपोर्ट रात से पहले हैड क्वार्टर में पहुंचनी चाहिये।'' यह कहते हुए शाहबाज़ ने जेब से एक पत्र निकाल कर रशीद की ओर बढ़ा दिया।

`

रशीद ने पत्र खोलकर पढ़ा। यह कोड में लिखा हुआ कोई नोट था। नोट पढ़कर उसने शाहबाज़ की ओर देखा और बोला-''पैग़ाम पहुंचाने के लिए हमें कहां जाना होगा?''

''कल रात को नौ बजे रुख़साना आपको अपने साथ ले जाएगी, उस अड्डे पर।''

''ओह...आई सी...लेकिन तुमको इतनी रात गए अपने अफ़सर की जीप गाड़ी में नहीं आना चाहिए था।''

''आप इसकी फ़िक्र मत कीजिए साहब...सिंधु साहब से इजाजत ले ली थी। अपनी बीमार बीवी को देखने गांव जा रहा हूं...सुबह लौटूंगा।''

''तोँ जाओ...जल्दी से यहां से खिसक जाओ।'' रशीद ने कहा और आगे बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया।

शाहबाज़ ने रशीद को फिर सैल्यूट किया और जल्दी से बाहर निकल गया। रशीद ने एक बार फिर उस नोट को पढ़ा और कुछ सोचते हुए बिस्तर पर आ लेटा। इस समय उसके मन में एक नई चिंता उभर आई थी। जो समय हैड क्वार्टर ने सिंगनल के लिए निश्चित किया था, उसी समय पूनम ने उसे अपने यहां खाने पर आमंत्रित कर रखा था। इसी असमंजस में बिस्तर पर करवटें लेते हुए उसने सारी रात गुज़ार दी।

दूसरे दिन जब पूनम और उसकी आंटी कमला रात के खाने के लिए बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं तो रशीद का अर्दली पूनम के लिए एक संदेश लेकर आया। पूनम ने अर्दली के हाथ से पर्चा लेकर पढ़ा और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। आंटी ने पास आकर जब उसकी चिंता का कारण जानना चाहा तो उसने क्रोध भरे स्वर में बड़बड़ाते हुए आंटी को बताया कि रणजीत इस समय यहां नहीं पहुंच रहा। उसने किसी ज़रूरी काम का बहाना बनाकर खाने पर आने से इंकार कर दिया है।

''तुम्हारा रणजीत शायद मुझसे मिलने से घबराता है।'' आंटी ने हंसते हुए कहा।

''नहीं आंटी...यह रूखा व्यवहार वह केवल आपके साथ ही नहीं, मेरे साथ भी करते हैं। जब से वे पाकिस्तान से लौटे हैं, जैसे अपने आप में नहीं हैं।''

''आप ठीक कहती हैं मेम साहब!'' रशीद का अर्दली बीच में बोला-''वह सचमुच अपने आप में नहीं हैं... रात में ठीक से सोते भी नहीं। न वक़्त पर नाश्ता, न खाना...सब कुछ छोड़कर ड्यूटी पर चले जाते हैं। अगर उन्हें कुछ कहें तो फौरन बिगड़ जाते हैं।''

''खैर...आज बिगड़ें या बुरा मानें, मैं अभी उन्हें खींचकर यहां लाती हूं। देखती हूं कैसे नहीं आते।'' कहते हुए पूनम बाहर जाने के लिए तैयार होने लगी।

''कोई फ़ायदा नहीं जाने से मेम साहब।'' अर्दली ने रोकते हुए कहा।

''क्यों?''

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