ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
अंधेरा होते ही पूरे हाल में खलबली मच गई। बच निकलने के लिए ऐसा कोलाहल मचा कि दरवाज़ों से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। झाड़ में से अभी तक चिनगारियां फूट रही थीं उन्हीं चिनगारियों से मंच पर लगे रेशमी पर्दे में आग लग गई। जलते हुए पर्दे में से एक शोला सलमा की ओर लपका और उसके आंचल में आग लग गई। मिर्ज़ा साहब एकाएक चिल्ला उठे-''बचाओ...बचाओ...मेरी सलमा को बचाओ। मेरी बच्ची को बचाओ।''
सलमा शोलों को झटकती हुई भागी। इससे पहले कि आग सलमा को पूरी तरह अपनी लपेट में ले ले, रशीद अपने स्थान से चीते के समान उछलकर उसके सामने आ गया औरे तेजी से सलमा के जलते हुए दोपट्टे को खींचकर अपने हाथों से मसल-मसल कर आग बुझाने लगा।
दोपट्टे की आग तो बुझ गई, लेकिन जब रशीद और सलमा ने इतने पास से एक-दूसरे को देखा तो दोनों के दिलों में चाहत की चिनगारियां-सी भर गई। सलमा का उमड़ता हुआ यौवन घबराहट से पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। दोपट्टे के बिना तो वह सचमुच कहर ढा रही थी। रशीद लोगों की परवाह न करते हुए स्थिर, खड़ा उसे एकटक तकता रहा। आखिर सलमा के थरथराते होंठों से आवाज़ निकली-''शुक्रिया...!''
इससे पहले कि रशीद कोई उत्तर देता...मिर्ज़ा साहब चीखते-चिल्लाते वहां आ पहुंचे। उन्होंने झट अपनी शेरवानी उतार कर बेटी के कंधों पर डाल दी और रशीद से लिपटते हुए बोले-''बरख़ुरदार! तुमने मेरी इकलौती बेटी की जान बचाई है। मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा।''
''आप बुजुर्ग हैं...मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं...यह तो मेरा फ़र्ज़ था।'' रशीद ने झुलसे हुए दोपट्टे को ज़मीन पर फेंकते हुए कहा और अपने जले हुए हाथों को देखने लगा।
''हाय अल्लाह...इनके तो हाथ बुरी तरह जल गये हैं अब्बाजान...इन पर मरहम लगा दीजिए।'' सलमा ने घबराकर कहा।
''देख क्या रही हो...जाओ, जल्दी से मरहम की डिबिया मेरी अलमारी से उठा लाओ।'' मिर्ज़ा जी ने बेटी से कहा।
सलमा थोड़ी देर में मरहम की डिबिया ले आई। बाहर की भीड़ से बचाकर मिर्ज़ा साहब रशीद को अंदर वाली बैठक में ले आए और सलमा को उसके फफोलों पर मरहम लगाने को कहा। सलमा कुछ शर्माई तो मिर्ज़ा साहब बोल उठे-''अरे भई लगाओ-लगाओ...शर्माने की क्या बात है। इस हंगामे में मेरा चश्मा कहीं खो गया, वर्ना मैं ही लगा देता।''
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