ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
सलमा का नाम सुनते ही लोग संभलकर बैठ गए। असलम ने रशीद के कान में कहा-
''अब कोई ऊटपटांग हरकत न कर बैठना। यह मिर्ज़ा साहब की साहबज़ादी हैं।''
''साहब! खूब ग़ज़ल कहती हैं।'' पास बैठे एक साहब ने विचार प्रकट किया।
''खाक कहती हैं...मिर्ज़ा साहब ग़ज़ल कह देते हैं और शोहरत वह कमा रही हैं। उनके कलाम में मिर्ज़ा साहब का रंग साफ झलकता है।''
तभी सलमा लखनवी की सुरीली आवाज़ हाल में गूंज उठी- ''मतला समाअत फ़र्माइये...शायद किसी क़ाबिल हो...अर्ज़ किया है।''
''निगाहों को शराब, आंखों को पैमाना बना डाला
भिरे साकी वे हर महफ़िल को मयख़ाना बना डाला।''
''आ हा...हा...हर महफ़िल को मयख़ाना बना डाला।'' एक साहब ने इतनी जोर से दोहराया कि थोड़ी देर के लिए मुशायरे पर सन्नाटा छा गया। और फिर दाद देने का ऐसा सिलसिला चला कि कई आवाज़ें एक साथ टकराकर खो गईं।
सलमा लखनवी बार-बार शेर दोहराए जा रही थी और हर बार 'मुकर्रर-मुकर्रर' का शोर होता। रशीद पर्दे की ओट से सलमा के दैवीय सौंदर्य को निहार रहा था। जब भी वह कोई शेर पढ़ती तो उसका जी दाद देने को चाहता...लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह जाता कि कहीं कोई अनुचित शब्द उसके मुंह से न निकल जाए। फिर सलमा ने यह शेर पढ़ा-
''वह उनका नाज़ से बांहें गले में डालकर कहना
बड़े आए कहीं के मुझको दीवाना बना डाला।''
तो उससे न रहा गया और वह अनायास 'वाह-वाह...सुबहान अल्लाह' कहता हुआ खड़ा हो गया। मिर्ज़ा साहब ने घूरकर उसे देखा और असलम ने जल्दी से उसे खींचकर कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन उसकी दृष्टि निरंतर सलमा पर जमी हुई थी...सलमा भी हर थोड़ी देर बाद उसकी ओर देख लेती थी।
सलमा 'मक्ता' पढ़कर जब अपने स्थान पर बैठ गई, तो रशीद को ऐसा अनुभव हुआ जैसे सृष्टि की गति रुक गई हो। उसके बाद भी काफ़ी देर तक मुशायरा चलता रहा, किन्तु रशीद को किसी के कलाम में दिलचस्पी न रही। वह केवल जी भरकर, एक बार सलमा को देख लेना चाहता था।
अचानक छत से लटके झाड़ से एक धमाके की आवाज़ हुई। एक बल्ब फटा और लोगों की चीख निकल गई। बिजली के शार्ट सर्किट से एक चिनगारी निकली और उस झाड़ में आग लग गई। किसी ने लपककर मेन स्विच आफ़ कर दिया और सारी बत्तियां एक साथ बुझ गईं।
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