ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
सब सुनने वालों की आंखें एक साथ उस पर्दे पर जम कर रह जातीं और कान स्वर व शब्दों का रस लेने के लिए एकाग्र हो जाते। फिर किसी सुन्दर शायरा का शरीर पर्दे के पीछे ही इन्द्रधनुष के समान उजागर होता... रसिक युवक दिल थामकर बैठ जाते।
रशीद इस प्रकार के मुशायरे में पहली बार आया था। उसे यह सब एक सुहाना सपना सा लग रहा था। जब कोई शायरा तरन्नुम से अपनी ग़ज़ल सुनाती तो वह विभोर सा हो जाता और सोचने लगता कि अब तक वह क्यों ऐसे रंगीन मनोरंजन से वंचित रहा।
कितने हसीन तख़ल्लुस चुने हैं इन शायराओं ने...सबा देहलवी', 'लैला लखनवी', 'तरन्नुम बरेलवी', 'तबस्सुम लाहौरी' इत्यादि...उसने मन ही मन सोचा और चुपचाप बैठा ग़ज़लें सुनता रहा। अचानक एक शायर को दाद देते हुए असलम लखनवी ने रशीद की ओर देखा और उसे मूर्तिमान बना चुपचाप देखकर टहूका देते हुए कहा-''अमां! तुम घुग्घू बने खामोश क्यों बैठे हो? तुम भी दाद दो।''
और रशीद बेढंगेपन से हर शेर पर 'वाह-वाह' 'सुबहान अल्लाह' इलललला की रट लगाने लगा।
''उं, हूं...इलललला नहीं कहते, सिर्फ़ सुबहान अल्लाह कहो।'' असलम ने उसे टोका।
और अब रशीद ऊंची आवाज़ से सुबहान अल्लाह, सुबहान अल्लाह की रट लगाने लगा। प्राय: शेर बाद में पढ़ा ज्ञाता और रशीद के मुंह से सुबहान अल्लाह पहले निकल पड़ता। उसकी इस हरकत पर मुशायरे में एक जोरदार ठहाका हुआ। मिर्ज़ा साहब ने मुंह बनाकर रशीद की ओर देखते हुए कहा-''अगर आप दाद देना नहीं जानते तो मेहरबानी फ़र्मा कर खामोश बैठे रहिये।''
''कौन साहब हैं यह?...कोई नये जानवर मालूम होते हैं।'' पर्दे के पीछे से हल्के-हल्के ठहाकों में मिली-जुली आवाज़ें सुनाई देने लगीं। कुछ चंचल लड़कियां पर्दा हटा-हटा कर रशीद की ओर झांकने लगीं।
''ए है...क्या बांका जवान है।'' सबा देहलवी ने झांककर कहा।
''मगर अक्ल से बिल्कुल कोरा मालूम होता है।'' लैला लखनवी ने टिप्पणी की। इस पर महिलाओं में फिर एक ठहाका हुआ। तभी एनाउंसर की आवाज़ गूंजी-''खातीन व हज़रात! हमा तन गोश हो जाइये...अब मैं मोहतरमा सलमा लखनवी से कुछ सुनाने के लिए अर्ज़ करता हूं।''
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