ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
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रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।
रशीद की आंखों में नींद का कहीं पता तक नहीं था। सोने के प्रयत्न में वह बार-बार करवटें बदल रहा था। उसके मस्तिष्क में चिनगारियां-सी फूट रही थीं। अंत में ऊबकर वह बिस्तर से उठकर आराम कुर्सी पर आ बैठा और समय बिताने के लिए टेबल-लैंप जला कर कोई पत्रिका देखने लगा।
जैसे ही उसने पत्रिका खोली, उसकी दृष्टि अपनी हथेली के उन छालों पर पड़ गई जो पूनम के आंचल की आग बुझाते समय पड़ गये थे। मरहम लगाने पर भी इन छालों में हल्की-हल्की जलन हो रही थी। इस जलन की मिठास से अचानक उसे याद आ गया कि ऐसे ही छाले उसकी हथेलियों पर पहले भी पड़ चुके थे। सलमा की पहली मुलाकात ने भी ऐसे ही मोती उसकी हथेलियों पर टांक दिये थे।
पत्नी की याद आते ही उसका सारा शरीर जैसे किसी अज्ञात आग में झुलस गया...वह तड़प उठा। रात के उस गहन अंधेरे में उसकी कल्पना उसे दो वर्ष पहले की कराची में घटित घटना की तरफ ले गई...। सलमा से उसकी पहली भेंट का दृश्य उसकी आंखों के सामने घूम गया।
रशीद छुट्टियों में अपने दोस्त असलम लखनवी से मिलने कराची गया हुआ था। उसे शेरो-शायरी में बिलकुल रुचि न थी और इसी कारण वह अपने शायर दोस्त का मजाक उड़ाया करता था। उसके विचार से शेर सुनना और सुनाना बेकार आदमियों का काम था। एक दिन वह न जाने किस मूड में था कि असलम ने उसे फुसला ही लिया। उसने मिर्ज़ा वसीम बेग के मकान पर होने वाले मुशायरों का जिक्र इस सुन्दरता से किया और उसकी ऐसी रंगीन तस्वीर खींची कि मन न चाहते हुए भी रशीद उसके साथ मिर्ज़ा जी के घर की ओर चल पड़ा।
आज मिर्ज़ा जी की साठवीं सालगिरह थी। इस उपलक्ष्य में उनके यहां विशेष मुशायरे का आयोजन किया गया था। असलम जब रशीद के साथ वहां पहुंचा तो मुशायरा पूरे जोश पर था। 'वाह-वाह, सुबहान अल्लाह, और माशा अल्लाह खूब रहा' के शोर से सारा हाल गूंज रहा था। उनकी ओर किसी नेँ विशेष ध्यान नहीं दिया। वे चपके से, आगे जाकर बैठ गए।
मुशायरे के लिए एक छोटा-सा मंच बना हुआ था। वास्तव में यह एक ऊंचा चबूतरा था, जिसके बीच में पतला रेशमी पर्दा डालकर उसे पुरुषों और स्त्रियों के लिए दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। एनाउंसर जब किसी शायर के बाद 'शायरा' का नाम पुकारता तो रेशमी पर्दे के पीछे से खनकती हुई किसी नारी की आवाज़ आती-
''मतला अर्ज़ करती हूं...''
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