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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

मिर्ज़ा साहब ने शेर पढ़कर एक गहरी सांस ली और सलमा सहानुभूति-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखती हुई बोली-''अब्बाजान! आप लखनऊ को किसी वक़्त भूलते भी हैं या हर वक़्त उसी की याद में खोए रहते हैं?''

''बेटी! अपने वतन को कोई कभी नहीं भूलता और फिर लखनऊ जैसे वतन को...जहां का हर मोहल्ला कूचाए वहिश्त से कम नहीं था...हर गौशा रश्के चमन था। हज़रत यूसफ़-अलै-अश्सलाम मिस्र में बादशाही करते थे और कहते थे कि इस अज़ीम शहर से मेरा छोटा-सा गांव किन आन बेहतर था...और मैं तो लखनऊ छोड़कर आया हूं बेटी...अमनो-सकूं का गहवारा, शेरो-अदब का गुलिस्तां, तहज़ीबो तमद्दन का मस्कन...और यहां आकर मुझे क्या मिला...आए दिन की अफ़रा तफ़री...हंगामे...शिया-सुन्नी फ़सादात... सिंधी-हिन्दुस्तानी झगड़े...हकूमतों की बार-बार तब्दीलियां, हिन्द-पाक जंगें...बमबारी, तोपों की घन-गरज... खून ख़रावा...सच पूछो तो जी ऊब गया है। जी चाहता है कि पर लग जाएं और मैं यहां से उड़कर फिर लखनऊ पहुंच जाऊं। न यहां वह आबोहवा है...न वह ज़ौक शौक...हर चीज़ अजनबी-अजनबी-सी लगती है।''

दोनों बाप-बेटी कितनी देर तक बात-चीत करते रहे, इसका उन्हें अनुमान न हो सका। वह चौंके तब जब नूरी ने आकर सूचना दी कि खाना तैयार हो गया है। सलमा उठते हुए बाप से बोली- ''चलिए...आज आपको लखनवी मुत्तंजन और बिरयानी खिलाती हूं...आपको लखनऊ बहुत याद आ रहा है न! इत्तिफ़ाक से आज मेरा भी इन्हीं खानों के लिए जी चाहा...। मुझे क्या मालूम था कि मेरे प्यारे अब्बाजान आ रहे हैं और मैं खाना उनके लिए बना रही हूं। चलिए, हाथ-मुंह धो लीजिए। तब तक नूरी खाना मेज़ पर लगा देगी।'' और फिर वह बाप को बाथरूम की ओर ले जाती हुई ऊंची आवाज़ से नूरी से बोली-'' अरी नूरी, ज़रा जल्दी से मेज़ पर खाना लगा दे।''

नूरी ने जल्दी-जल्दी मेज़ पर खाना सजा दिया। मिर्ज़ा साहब जब हाथ-मुंह धोकर मेज़ के सामने आए तो खानों की सुगंध ही पर फड़क उठे और बोले- ''सुबहान अल्ला! यह मेरे लखनऊ की खुशबू है...दुनियां वालों को यह खाने कहां नसीब।'' और मेज़ पर बैठकर 'बिस्मिल्लाह' कह कर खाने पर टूट पड़े,। लेकिन फिर अचानक उन्हें कुछ ध्यान आया और हाथ रोकते हुए बोले-''अरे हां...यह तो मैं पूछना ही भूल गया कि रशीद मियां कहां और कितने दिन के लिए गये हैं। खत में तो उन्होंने कुछ लिखा ही नहीं था।''

सलमा ने उनकी बात का उत्तर देने से पहले क्षण भर के लिए सोचा और फिर बाप की प्लेट में नींबू के अचार का एक टुकड़ा डालते हुए धीरे से बोली-''आप तो जानते हैं अब्बाजान...वह फ़ौजी अफ़सर हैं और फ़ौजी लोग अपनी बीवियों तक को नहीं बताते कि वे कहां और क्यों जा रहे हैं...अल्लाह जाने इस वक़्त वे कहां होंगे।''

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