ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''शर्बत से ही पेट न भर लीजिए अब्बाजान...खाने का वक्त हो रहा है, फिर आप कहेंगे, बस भई, आज खाना नहीं खाया जाता।'' सलमा ने गिलास उनके हाथ से लेते हुए नूरी को संकेत किया कि बाकी बचा हुआ शर्बत वापस ले जाए।
नूरी शर्बत लेकर वापस चली गई तो सलमा ने कहा-''बहुत दिनों बाद आए हैं आप...अब मैं दो हफ्ते से पहले आपको कराची वापस न जाने दूंगी।''
''दो हफ्ते...!'' मिर्ज़ा साहब ने चौंकते हुए कहा-'' अरे भई...मैं तो तुम्हें, अपने साथ तुम्हारी फूफीजान के यहां ले जाने के लिए आया हूं।''
''क्यों...?'' सलमा ने प्रश्न सूचक दृष्टि से देखते हुए पूछा।
''क्यों क्या...मैं हज़ के लिए रवाना होने ही वाला था कि रशीद मियां का ख़त पहुंचा कि वह किसी सरकारी काम पर बाहर जा रहा है और तुम पीछे घर में अकेली हो...इसीलिए तुम्हें लेने चला आया। मालूम होता है, इस साल भी खुदा को हज़ करवाना मंजूर नहीं है। लखनऊ में था, तभी से इरादे कर रहा हूं और हर साल कोई-न-कोई रुकावट आ पड़ती है...देखो, कब बुलाते हैं सरकारे-दो-आलम अपने आस्ताने पर।'' मिर्ज़ा साहब ने ठंडी सांस लेते हुए कहा।
सलमा झट बोल उठी-''आप हज़ करने चले जाइए...मेरी फ़िक्र न कीजिए।''
''तुम्हें अकेली छोड़कर?''
''अकेली क्यों...नूरी है...ख़ानसामा है...और पास-पड़ोस वाले सभी हमदर्द हैं...मैं यहां बड़े आराम से रहूंगी। फूफीजान पर ख़ामख़ाह बोझ पड़ेगा।''
''लाहौल विल्ला कुव्वत! इसमें बोझ की क्या बात है...तुम्हारी अम्मी के मरने के बाद उन्होंने तुम्हें अपनी औलाद की तरह पाला है। तुम उन पर बोझ बन सकती हो?'' मिर्ज़ा साहब ने कुछ गम्भीर होकर कहा। फिर थोड़ा? रुककर बोले-''और फिर तुम तो उनकी सगी भतीजी हो...हम लखनऊ वाले तो अजनबी मेहमानों की ख़ातिर तवाज़ो में जिस्मो जान एक कर देते हैं।...मगर तुम क्या जानो जाने आलम पिया के लखनऊ की तहज़ीब को...तुमने तो पाकिस्तान में आंखें खोली हैं...अल्लाह-अल्लाह क्या लोग थे...क्या शान थी, क्या वज्ज़ा थी उनकी...मुंह खोलते थे तो फूल झड़ते थे...दुश्मन को भी 'आप' और 'जनाब' कहकर पुकारते थे। मजाल थी कोई नामुनासिब हर्फ़ भी ज़बान से निकल जाए...बच्चे, जबान, बूढ़े, सभी तेहज़ीब और शायस्तगी के सांचे में ढले हुए थे...हाय-
''वह सूरतें खुदाया किस देश बस्तियां हैं।
अब जिनके देखने को आंखें तरस्तियां हैं।''
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