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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

7

कड़कड़ाते हुए घी में 'छांय' से प्याज़ पड़ी और शुद्ध घी की महक रसोई में फैल गई।

सलमा पसीना-पसीना होते हुए भी बड़ी लगन से ख़ास लखनवी ढंग के पकवान बनाने में व्यस्त थी।

''हाय अल्लाह! आप तो पसीने में शराबोर हुई जा रही हैं बीबी...हटिए...मैं पका लूंगी।'' नौकरानी नूरी ने सलमा के हाथ से कड़छी पकड़ते हुए कहा।

''नहीं नूरी...यह पंजाबी नहीं, लखनवी खाने हैं...ज़रा भी नमक-मिर्च कम ज़्यादा हो जाए, या आंच में कसर रह जाये तो बिलकुल बे मज़ा हो जाते हैं। मैंने लखनवी मुत्तंजन और बिरयानी पकाना अपनी फूफीजान से सीखा था। लेकिन भई...खुदा लगती बात यह है कि इतनी मेहनत के बाद भी उने जैसा मुत्तंजन अब तक नहीं पका सकती। हालांकि खुदा झूठ न बुलवाए सैकड़ों बार मुत्तंजन पका चकी हूं। मगर वह बात कहां...!'' सलमा ने मुंह पर आई बालों की लट को बाएं हाथ से सिर की ओर झटकते हुए कहा और फिर खाना पकाने में लग गई।

तभी दरवाज़े पर एक तांगा आकर रुका और एक बड़े मियां ख़शख़शी दाढ़ी रखे, शेरवानी और चौड़ी मुहरी का पायज़ामा पहने, तांगे से उतरते दिखाई दिए। सलमा ने रसोई की खिड़की से देखा और 'हाय अल्लाह! अब्बाजान!' कहती हुई, कड़छी नूरी के हाथ में थमा कर दरवाज़े की ओर भागी। लेकिन इससे पहले कि वह उन्हें बाहर जाकर मिलती, उसके अब्बाजान मिर्ज़ा वसीम बेग स्वयं ही अपना थोड़ा सा सामान उठाए अंदर आ गए।

सलमा ने लपक कर उनकी अटैची ले ली और खुशी से बोली-''अस्सलाम-वालेकुम... अब्बाजान...आप...अचानक बगैर इत्तला दिये कैसे आ गए?''

''अरे भई, दम लेने दो...फिर बताता हूं...उफ़ क्या बला की गर्मी है। यहां लाहौर में।'' मिर्ज़ा साहब ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

''अरे नूरी जल्दी से शर्बत बना के ले आ।'' सलमा ने बाप को सोफ़े पर बैठा दिया और बोली-''अब्बाजान, यहां गर्मी पड़ती ही बहुत है।''

''गर्मी तो अपने लखनऊ में भी पड़ती थी...लेकिन यह उमस नहीं होती थी। यहां तो दम घुटता हुआ सा महसूस होता है।'' यह कहते हुए मिर्ज़ा साहब ने शेरवानी उतारकर खूंटी पर टांग दी और संतोष से बैठकर बेटी से बातें करने लगे।

इतने में नूरी शीशे के जग में शर्बत रुह अफ़ज़ा ले आई।

''आ हा...।'' रुह अफ़ज़ा देखते ही मिर्ज़ा साहब की बाछें खिल गईं। गिलास में जग से शर्बत उड़ेलते हुए वे बोले-''रुह अफ़ज़ा को देखते ही दिलो-दिमाग़ में ताज़गी का एहसास होने लगता है। मैं तो डर रहा था कोई अंग्रेज़ी शर्बत न हो। अजब नामानूस-सी खुशबु होती है, उन शर्बतों में।'' यह कहते हुए उन्होंने एक और गिलास चढ़ा लिया।

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