ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
रणजीत वहीं बैठ गया। उसके सिर में चक्कर-सा आने लगा और फिर उसके लेटते ही उस पर गशी छाने लगी।
इधर रात का अंधेरा बढ़ता जा रहा था और उधर रणजीत मस्तिष्क अंधेरों में गोते खा रहा था। उसे यों अनुभव हो रहा जैसे वह किसी भारी पत्थर से बंधा हुआ समुन्दर की गहराई में उतरता जा रहा हो...एक अजीब-सी दुनिया में...।
आधी रात के समय मेजर रशीद तम्बू का पर्दा हटाकर अंदर प्रविष्ट हुआ तो उसके मस्तिष्क को अचानक एक जोरदार झटका लगा...एक सुंदर लड़की हाथों में लाल गुलाब के ताज़ा फूलों का गुलदस्ता लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी...पूनम को पहचानने में उससे कोई भूल नहीं हुई।
''पूनम...तुम...इतनी रात गए?'' उसने रणजीत के स्वर की नकल करते हुए कहा।
''क्या करती...सुबह तक प्रतीक्षा नहीं कर सकती...तुम मेरी मनौतियों से इतने दिनों बाद लौटे हो।'' पूनम ने कहा और भरपूर प्यार से उसकी ओर देखती हुई खड़ी हो गई।
''मुझे तो छुट्टी नहीं मिली...वर्ना सीधा तुम्हारे ही पास आता।'' रशीद ने कहा और आगे बढ़कर उसके कंधों पर हाथ रखना चाहा तो पूनम झट उसके पैरों में झुकते हुए बोली-''ठहरिए...पहले मैं अपने देवता के चरणों में ये फूल चढ़ा दूं।''
रशीद ने हाथ पकड़ते हुए उसे उठा लिया और अपने निकट खींचते हुए बोला-''नहीं पूनम...प्यार के इन फूलों का अनादर न करो...इन्हें तो मैं सीने से लगाकर रखूंगा।'' और वह फूलों को चूमने लगा।
''कहिए...कभी भूल से भी मुझे याद किया था आपने?'' पूनम ने मुस्कराते हए पूछा।
''यह क्या कह रही हो...पाकिस्तानी क़ैद के अंधेरों में बस एक तुम्हारी याद ही तो जुगनू थी...तुम्हारी कल्पना ही सहारा था और तुम्हारा प्यार ही पूजा...मैं सोते जागते हर समय तुम्हें अपने पास पाता था...दिल में...आत्मा में...।''
''जानते हो, ऐसा क्यों होता था?''
''क्यों?''
''मैं भी पाकिस्तान गई थी।''
''पाकिस्तान...! क्या कह रही हो?'' वह आश्चर्य से उछल पड़ा।
''आप इस तरह चौंक क्यों पड़े? आदमी के शरीर पर पहरा बिठाया जा सकता है...उसे कहीं आने-जाने से रोका जा सकता है...लेकिन आत्मा पर कोई पहरा नहीं बैठा सकता...।''
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