ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
|
363 पाठक हैं |
सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''लेकिन तुम भूल रहे हो बलबीर...जहां हम लोग बंदी बनकर रह आए हैं, वह भी पंजाब ही है।'' फिर क्षण-भर रुक कर मेजर खन्ना कुछ गम्भीर होकर बोला-''हम पूरी शक्ति और तैयारी से ही उनका मुकाबला कर सकते हैं...केवल भावनओं के बल पर नहीं...''
मेजर खन्ना की बात सुनकर सब चुप हो गए और एक दूसरे को देखने लगे। रशीद ने वर्तालाप में भाग नहीं लिया। उसने कनखियों से मेजर खन्ना के चेहरे की ओर देखा और अनुभव किया कि इस अफ़सर का चेहरा आवेश से चमक रहा था।
ट्रक अपनी मंजिल की ओर बढ़ता गया। कुछ देर तक बोझिल-सा मौन छाया रहा। कुछ क्षण बाद आपसी बात-चीत पुन: आरम्भ हो गई। रशीद ध्यानपूर्वक उनके चेहरों के भाव पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था।
थोड़ी देर में वातावरण उल्लासपूर्ण हो गया। ट्रक में ठहाके गूंजने लगे। रशीद ने अनुभव किया, आज ये लोग बहुत दिनों के बाद खुलकर हंस पाए हैं। लगता है, सचमुच उनके फेफड़ों में कोई नई हवा प्रवेश कर रही हो। अपने देश की हवा में कुछ और ही ताजगी रहती है, जो मन पर जादुई असर डालती है।
कुछ देर बाद किसी ने कर्नल मजीद से पूछा-''कर्नल...पाकिस्तानियों ने हिन्दुओं और सिखों के साथ जो व्यवहार किया, वह तो ठीक है, लेकिन एक मुसलमान होने के नाते आपसे उनका सलूक कैसा रहा?''
कर्नल मजीद ने ठंडी आह भरी और यह शेर पढ़ दिया-
''मुफ़तिए शर्रे-मतीं ने मुझे काफ़िर जाना,
और काफ़िर यह समझता है मुसलमान हूं मैं।''
रशीद ने दृष्टि घुमाकर कर्नल मजीद की भीगी हुई आंखों को देखा और सोचने लगा-बात तो इसने ठीक कही है। हिन्दुस्तानी मसलमान न इधर के हुए न उधर के। उसने सोचा मेजर खन्ना के विचारों में भी सत्यता थी। इस वास्तविकता से इंकार नहीं किया का सकता कि बटवारा हो जाने से किसी देश की मिट्टी नहीं बदल जाती। वहां के लोगों, के विचार, भाव, रहन-सहन का ढंग और सभ्यता नहीं बदलती। हम सबका आधार एक ही है...इतिहास एक है...पूर्वज एक हैं...लेकिन फिर क्या बात है कि हिन्दुस्तानी अफ़सरों को पाकिस्तान की धरती अजनबी लग रही थी। सोचते-सोचते उसकी दृष्टि आस-पास उन खेतों और मैदानों पर पड़ गई, जिसकी मिट्टीँ लोगों और बमों से झुलस कर काली पड़ गई थी। यह घृणा की कालिख थी...और फिर अचानक मेजर रशीद को भी यह धरती अजनबी लगने लगी। यहां की हवाओं में उसे वह ताजगी महसूस नहीं हो रही थी, जो पाकिस्तानी हवाओं में होती थी।
|