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वापसी
वापसी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9730
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आईएसबीएन :9781613015575 |
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
वह अभी-अभी उठा था और अपनी कोठरी में था। बाहर संतरी पहरा दे रहा था...। आते-जाते उसके जूतों की आवाज़ रणजीत के कानों से टकरा रही थी। उसने सिर को झिंझोरा और उठकर बैठ गया। अब वह सोच सकता था...उसका मस्तिष्क साफ़ था...स्वतंत्रता...देश...मां...पूनम...कल्पना और मधुर विचारों की वही कड़ियां फिर चल निकलीं। वह सोचने लगा, अभी उसे पुकारा जाएगा और शायद शाम तक वह सीमा पार अपने देश में होगा।
तभी कैम्प एडजुटेंट कैप्टन रयाज़ ने आकर उसे बताया कि अचानक बीमार पड़ जाने के कारण उसे दूसरे क़ैदियों के साथ नहीं भेजा जा सका था। अब उसे कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। जिस जत्थे के साथ उसे जाना था, उसे गये तीन दिन हो चुके थे। कैप्टन रणजीत ने कैम्प कमांडेंट से मिलने की प्रार्थना की। किंतु कैप्टन रयाज़ ने यह कहकर टाल दिया कि मेजर रशीद कहीं बाहर गए हुए हैं।
रणजीत का कलेजा धक् से रह गया। अचानक उसके मस्तिष्क में कई भ्रम जाग उठे। क्या उसे जान-बूझकर रोक लिया गया है? आखिर इसका क्या उद्देश्य था? उसे बीमार किया गया...बेहोश किया गया और फिर कैम्प में डाल दिया गया...क्यों? क्यों?...तभी एकाएक उसके विचारों ने पलटा खाया। वह तड़प उठा। मेजर रशीद उसका बिल्कुल हमशक्ल है...हम दोनों की आवाज़ और कई आदतें भी आपस में मिलती हैं...मैंने अपने जीवन संबंधी बहुत सी बातें मेजर रशीद को बता दी हैं...ऐसा तो नहीं कि ये लोग इस बात से लाभ उठायें। उसका मन ग्लानि से भर गया कि दुश्मन की चाल में आकर उसने अपने बहुत से भेद प्रकट कर दिये थे। यह बहुत बुरा हुआ...उसे कुछ करना ही पड़ेगा। अब स्वतंत्रता अपने बल-बूते और साहस द्वारा ही प्राप्त करनी पड़ेगी। यहां से भागने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं था...लेकिन भागा कैसे जाए? इतनी कड़ी निगरानी में इसका अवसर कैसे मिल सकता है? लेकिन फिर भी वह प्रयत्न करेगा...कैम्प से भागने की इतनी दृढ़ इच्छा उसके मन में पहले कभी नहीं उत्पन्न हुई थी। वह भागने की योजना पर विचार करने लगा। उसने सोचा कि कैम्प के कर्मचारियों को इस बात का विश्वास रहना चाहिए कि वह उनकी चाल से अनभिज्ञ है।
दोपहर होते-होते रणजीत के मस्तिष्क में फ़रार होने का प्लान पूर्णरूप से बन चुका था। जिस पुराने किले में जंगी क़ैदियों का कैम्प था, उससे सटा हुआ अंग्रेज़ों के ज़माने का एक फ़ौजी बैरेक था। जो इसी युद्ध में हिंदुस्तानी बमबारों ने खंडहर में परिवर्तित कर दिया था। किले की एक कोठरी क़ैदियों के लिए गुसलखाने के लिए काम में आती थी। इस कोठरी की दीवार फोड़कर उस खंडहर में पहुंचा जा सकता था...लेकिन इससे दीवार के उस तरफ पहरा देते हुए संतरी की नज़र पड़ सकती थी। इसलिए रणजीत ने इस कोठरी के फ़र्श से खंडहर तक सुरंग खोदने का फ़ैसला किया। यह काम कठिन अवश्य था, किंतु जब निश्चय दृढ़ हो तो कुछ भी कठिन नहीं होता। क़ैदियों के विचित्र ढंग से भागने के उसे कई उदाहरण याद थे। इस काम में वह कुछ और क़ैदियों को अपने साथ मिलाने में भी सफल हो गया।
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