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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

फिर मौलाना मेरी ओर संकेत करते हुए बोले- ''यह मज़लूम औरत अपने दो मासूम बच्चों को लेकर खुदा की पनाह में आई है। इसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेवारी मेरी है। कान खोलकर सुन लो। तुम मुझे मारकर ही इन्हें मारने के लिए मस्ज़िद में दाखिल हो सकते हो।''

उनकी बातें सुनकर गुंडे सन्नाटे में आ गए। कुछ देर तक उन्होंने आपस में खुसर-फुसर की...फिर यह देखकर मैंने संतोष की सांस ली कि वे वहां से लौट गए।

मौलाना ने पलटकर दरवाज़े की कुंडी लगा दी और हमें साथ लेकर अपने हुजरे में चले आए। शाम तक बच्चों समेत मैं हुजरे में बंद रही और रात के अंधेरे में वह मुझे मस्ज़िद के पिछवाड़े से अपने घर ले गए, जहां उनकी पत्नी ने मुझे सांत्वना दी...मेरे बच्चों को प्यार से खाना खिलाया। वह रात मैंने उन्हीं के घर में गुज़ारी। दूसरे दिन सुबह मौलाना ने मुझे अमृतसर भेजने का प्रबंध करा दिया। लेकिन मुझे अभी तक गुंडों का डर लगा हुआ था। कहीं वे रास्ते में मुझे और मेरे दोनों बच्चों को मार न डालें। मैं तो ख़ैर एक प्रकार से मर ही चुकी थी, इसलिए मुझे अपने मरने का डर नहीं था...लेकिन मैं कम-से-कम अपने पति की एक निशानी बाकी रखना चाहती थी। इसीलिए मैंने अपना एक बच्चा मौलाना की पत्नी के हवाले कर दिया। उनकी अपनी कोई संतान न थी और उन्होंने सहर्ष मेरे बच्चे को स्वीकार कर लिया। मौलाना ने परिस्थितियों के ठीक हो जाने पर मेरे बच्चे को लौटा देने का वचन दिया।''

मां क्षण भर सांस लेने के लिए रुकीं और फिर बोलीं-''मैं हिन्दुस्तान चली आई और परिस्थितियों के ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगी...लेकिन दोनों देशों के हालात दिन-ब-दिन बिगड़ते ही चले गए। दंगों, फ़सादों, आरोपों और प्रति-आरोपों से घृणा की दीवारें और ऊंची होती चली गईं और मौलवी साहब अपना वचन निभा न सकें। वहां गुंडे मेरे बच्चे के कारण, उनकी जान के दुश्मन हो गए थे। आखिर अपने और मेरे बच्चे के प्राण बचाने के लिए उन्होंने उसे मुसलमान बनाकर उसका नाम रशीद रख दिया।''

''क्या...?'' रशीद एक झटके से यों पीछे हटा जैसे किसी ने उसके सीने पर छुरा मार दिया हो...उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह फटी-फटी आंखों से मां को देखने लगा।

''हां बेटे...'' मां ने अपनी हिचकियों पर काबू पाने का प्रयत्न करते हुए कहा-''मौलाना उसका नाम रशीद रखकर उसे अपने बच्चे के समान पालने लगे। अब कोई उसके खून का प्यासा न रहा...यद्यपि उसकी धमनियों में दौड़ने वाला लहू वही था।''

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