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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

''मेरे भाई को...?''रशीद का आश्चर्य और भी बढ़ गया।

''हां तेरे भाई को...जो आजकल पाकिस्तानी फ़ौज में मेजर है।''

''क्या कह रही हो मां?'' वह कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया और मां के दोनों कंधे पकड़कर झिंझोरता हुआ बोला-''बोलो मां...कौन सा भाई?'' कैसा भाई?''

''तेरा सगा भाई, जिसे ज़िन्दा रहने के लिए मुसलमान बनना पड़ा।'' मां ने सिसकते हुए कहा-''और इसकी ज़िम्मेवार मैं हूं...इसलिए मैंने अब तक यह भेद सबसे, यहां तक कि तुझसे भी छिपाए रखा।'' कहते-कहते मां की आवाज़ फिर भर्रा गई और वह कुछ क्षण के लिए मौन हो गई।

''लेकिन यह हुआ कैसे मां। तुम चुप क्यों हो गईं? वह कहां है? बोलो...बताओ...जल्दी।'' रशीद चिल्ला-सा उठा। उसके मन में कई भ्रम उत्पन्न होने लगे थे और वह जल्दी-से-जल्दी इस पहेली को सुलझा लेना चाहता था।

मां ने एक ठंडी सांस ली और अपनी कहानी आरम्भ की-

''1947 में देश स्वतंत्र हुआ। हिन्दुस्तान दो टुकड़ों में बट गया...और फिर अचानक इंसान शैतान बन गया। दोनों ओर खून की भयंकर होली खेली गई। बरसों से एक साथ पले, खेले-कूदे, एक दूसरे के दुःख-सुख के साथी एकाएक भयानक दुश्मन बन गए। मुसलमान हिन्दुओं के और हिन्दू मुसलमानों के लहू के प्यासे हो गए।

हमारा घराना लाहौर के सम्पन्न घरानों में मे एक था। बहुत सुखी थे हम...। दुःख या चिन्ता कभी हमारे पास न फटकी थी...और फिर एक दिन अचानक ही जैसे प्रलय आ गई। कुछ गुंडे बन्दूकें और तलवारें लिए हमारे घर में घुस आए। तेरे पिता और चाचा ने उनका मुकाबला किया लेकिन निहत्थे क्या करते। कुछ ही देर में खून में नहाई उनकी लाशें आंगन में पड़ी थीं। मैं अपने दो मासूम जुड़वां बेटों को लेकर गली में खुलने वाले पिछले दरवाजे से भाग खड़ी हुई। दूर तक मेरे कानों में बंदूक के धमाके और घर के दूसरे लोगों की चीख़ें गूंजती रहीं। लेकिन में अपने बच्चों को लिए तेज़ी से भागने लगी। अभी थोड़ी ही दूर गई थी कि अचानक एक गली से कुछ गुंडे निकलकर मेरे पीछे लग गए। उनके हाथों में हथियार थे। वह मुहल्ला भी मुसलमानों का था। मैं कुछ दूर तक तो बच्चों को घसीटती भागती रही, लेकिन जब गुंडे बिलकुल सिर पर पहुंच गए तो मैं पास ही एक मस्ज़िद में घुस गई और झट किवाड़ बंद करके अंदर से कुंडी लगा दी।

गुंडे बाहर से किवाड़ पीट रहे थे। उनके शोर से पता चलता था कि उनकी संख्या प्रति क्षण बढ़ती जा रही है। मैं बच्चों को टांगों से लगाए थरथर कांप रही थी और वह इस प्रकार धक्के दिए जा रहे थे कि लगता था किवाड़ अभी टूट जाएगा और मैं बच्चों समेत उसके नीचे दब जाऊंगी।

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