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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730
आईएसबीएन :9781613015575

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

आराम कुर्सी पर बैठे न जाने कितनी देर तक वह उस वृद्धा की तस्वीर देखता रहा। इस महिला के चेहरे से एक विशष तेज झलकता था। रशीद की अपनी मां उसके बचपन ही में खुदा को प्यारी हो चुकी थी। ममता की मिठास का उसे जरा भी अनुभव नहीं था। वह महिला उसकी मां नहीं थी, रणजीत की मां थी और न जाने क्यों उसे कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था कि रणजीत की मां की कोख उजाड़ कर वह कोई बहुत बड़ा पाप कर रहा था। मां तो फिर मां ही है...चाहे किसी की भी हो। इस विचार के आते ही उसका सारा शरीर कांपकर रह गया। उसके दिल में एक अनोखी पीड़ा उठी और जैसे उसका सारा शरीर ही बोझिल हो गया हो। वह सुस्ताने के लिए उसी कुर्सी पर टांगें पसार कर लेट गया। उसने आंखें बन्द कर लीं और थोड़ी देर के लिए अपना शरीर ढीला छोड़ दिया।

तभी एकाएक किसी आहट ने उसे चौंका दिया। उसे लगा कमरे में वह अकेला नहीं था...कोई छाया उसके पास से गुजरकर चली गई थी। अपनी सांस रोके, टेबल लैंप के धुंधले प्रकाश में वह कमरे में इधर-उधर देखने लगा। उसे यों प्रतीत हुआ जैसे कोई सामने लटके पर्दे के पीछे छिपने का प्रयत्न कर रहा है। रशीद ने कुर्सी से उठने का प्रयास किया, लेकिन भय से उसका शरीर कुर्सी से चिपक कर रह गया।

''कौन हो तुम?'' बड़ी मुश्किल से फटी आवाज़ में वह चिल्लाया।

कुछ क्षण तक कमरे में मौन रहा। फिर वह छाया पर्दे के पीछे से निकलकर मेज़ के पास रोशनी में आ गई। रशीद के मुंह से अनायास एक भयभीत चीख़ निकल गई। उसने कांपती दृष्टि से देखा तो सामने रणजीत खड़ा मुस्करा रहा था। अपनी आंखों पर विश्वास न करते हुए वह फिर चिल्लाया-''कौन हो तुम?''

''ओ हो...अपने हमशकल को इतनी जल्दी भूल गए हो?'' रणजीत एक विषैली हंस्री हंसता हुआ बोला।

''लेकिन तुम तो कैम्प मैं क़ैद थे?'' रशीद घबरा कर बोला।

''क़ैद था लेकिन फ़रार होकर यहां वापस आ गया हूं।''

रणजीत ने कहा और फिर उसके पास आकर उसकी आंखों में? हुआ बोला-''और अब मैं तुम्हें क़ैदी बनाऊंगा...गिन-गिन कर तुमसे बदले लूंगा।''

''मुझसे?''

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