ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 5
सुकन्या
देवि! यही है नियम; पाश जो क्षणिक, क्षाम, दुर्बल हैं,
वैराग्योन्मुख पुरुष नहीं उन बन्धों से डरता है।
जन्म-जन्म की जहाँ, किंतु, श्रृंखला अभंग पड़ी है,
यती निकल भागता उधर से आंखें सदा चुराकर।
परामर्श क्यों करे मुक्तिकामी अपने बन्धन से?
गृहिणी की यदि सुने, गेह से कौन निकल सकता है?
विस्मय की क्या बात? यहाँ जो हुआ, वही होना था।
अचरज नहीं, आपसे मिलकर नृप यदि नहीं गए हैं।
औशीनरी
पतिव्रते! पर, हाय, चोट यह कितनी तिग्म, विषम है।
कैसी अवमानना, प्रतारण कितना तीव्र गरल-सा,
मैं अवध्य, निर्दोष, विचारा यह क्यों नहीं दयित ने?
छला किसी ने और वज्र आ गिरा किसी के सिर पर,
गँवा दिया सर्वस्व हाय, मैंने छिप कर छाया में,
अस्वीकृत कर खुली धूप में आंख खोल चलने से।
देवि! प्रेम के जिस तट पर अप्सरा स्नान करती है,
गई नहीं क्यों मैं तरंग-आकुल उस रसित पुलिन पर,
पछताती हूँ हाय, रक्त आवरण फाड़ व्रीड़ा का,
व्यंजित होने दिया नहीं क्यों मैंने उस प्रमदा को
जो केवल अप्सरा नहीं, मुझमें भी छिपी हुई थी?
बसी नहीं क्यों कुसुम-दान बन उन विशाल बाँहों में?
लगी फिरी क्यों नहीं पुष्प-सज्र बन उदग्र ग्रीवा से?
बेध रहे थे उठा शरासन जब से वक्ष तिमिर का,
बनी न क्यों शिंजिनी, हाय, तब मैं उस महाधनुष की?
गई नहीं क्यों संग-संग मैं धरणी और गगन में,
जहाँ-जहाँ प्रिय को महान घटनाएं बुला रही थीं?
अंकित थे कर रहे प्राणपति जब आख्यान विजय का,
पर्ण-पर्ण पर, लहर-लहर् में, उन्नत शिखर-शिखर पर,
समा गई क्यों नहीं, हाय, तब मैं जीवंत प्रभा-सी,
बाणों के फलकों, कृशानु की लोहित रेखाओं में?
जीत गई वे जो लहरों पर मचल-मचल चलती थीं,
उड़ सकती थीं खुली धूप में, मेघों भरे गगन में,
हारी मैं इसलिए कि मेरे व्रीड़ा-विकल दृगों में,
खुली धूप की प्रभा, किरण कोलाहल की गड़ती थी।
देखा ही कुछ नहीं, कहाँ, क्या महिमा बरस रही है
अंतर की छाया-निवास से बाहर कभी निकल कर,
हाय, भाग्य ने मुझे खींच इस त्रपा-त्रस्त छाया से,
फेंक दिया क्यों नहीं धूप में, उस उन्मुक्त भुवन में।
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