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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 जहाँ तरंगाकुल समुद्र जीवन का लहराता है,
 और पुरुष हो रणारूढ, विशिखों के निक्षेपन से-
 पूर्व, पास में खड़ी प्रिया का मुख निहार लेता है?
 हाय, सती मैं ही कदर्य, दोषी, अनुदार, कृपण हूँ,
 केवल शुभकामना, मंगलैषा से क्या होता है?
 मैं ही दे न पाई भावमय वह आहार पुरुष को,
 जिसकी उन्हें अपार क्षुधा, उतनी आवश्यकता थी।
 
 मुझे भ्रांति थी, जो कुछ था मेरा, सब चढ़ा चुकी हूँ;
 शेष नहीं अब कोई भी पूजा-प्रसून डाली में;
 किंतु, हाय, प्रियतम को जिसकी सबसे अधिक तृषा थी,
 अब लगता है चूक गई मैं वही सुरभि देने से।
 रही समेटे अलंकार क्यों लज्जामयी विधु-सी?
 बिखर पड़ी क्यों नहीं कुट्टमित, चकित, ललित, लीला में?
 बरस गई क्यों नहीं घेर सारा अस्तित्व दयित का,
 मैं प्रसन्न,उद्दाम, तरंगित, मदिर मेघ-माला-सी?
 हार गई मैं हाय! अनुत्तम, अपर ऋद्धि जीवन की,
 प्राणों के प्रार्थना-भवन में बैठी ध्यान लगाकर।
 
 सुकन्या
 देवि! आपकी व्यथा, सत्य ही, अति दुरंत, दुस्सह है;
 आजीवन यह गाँस हृदय से, सचमुच नहीं कढ़ेगी।
 पर, इस ग्लानि, प्रदाह, आत्म-पीड़न से अब क्या होगा?
 उन्मूलित वाटिका नहीं फिर से बसने वाली है।
 उसे देख कर जिएँ, नया पादप जो आन मिला है।
 जितना भी सिर धुनें शोक से प्रियतम की विच्युति पर,
 किंतु, सुचरिते! यह अचिंत्य विस्मय की बात नहीं है।
 पुरुष नहीं विक्रांत, भीम, दुर्जय, कराल होता है,
 जहाँ सामने तथ्य खड़े हों, अरि हों, चट्टानें हों।
 पर, जब कभी युद्ध ठन जाता इसी अजेय पुरुष का,
 अपने ही मन की तरंग, अपनी ही किसी तृषा से
 उससे बढ़कर और कौन कायर जग में होता है?
 कर लेता है आत्म-घात, क्या कथा यतीत्व-ग्रहण की?
 पर के फेंके हुए पाश से पुरुष नहीं डरता है,
 वह, अवश्य ही, काट फेंकता उसे बाहु के बल से।
 पर, फँस जाता जभी वीर अपनी निर्मित उलझन में,
 निकल भागने की उसको तब राह नहीं मिलती है।
 			
		  			
						
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