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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 औशीनरी
 कौन सका कह व्यथा? नहीं देखा, समग्र जीवन में,
 जो कुछ हुआ देख उसको मैं कितनी मौन रही हूँ,
 कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा-सी?
 वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु, मौन कंचन है।
 पर, क्या मिला, अंत में जाकर, मुझको इस कंचन से?
 उतरा सब इतिहास, जहाँ निर्घोष, निनद, कलकल था;
 चले गए उस मूक नीड़ की छाया सभी बचाकर,
 घटनाओं से दूर जहाँ मैं अचल, शांत बैठी थी।
 महाराज कितने उदार, कितने मृदु, भाव-प्रवण थे!
 मुझ अभागिनी को उनने कितना सम्मान दिया था!
 पर, चलने के समय कृपा अपनी क्यों भूल गए वे?
 रहा नहीं क्यों ध्यान, दानवाक्र्ति इस बड़े भवन में,
 कहीं उपेक्षित शांत एक वह भी धूमिल कोना है,
 कभी भूल कर भी जातीं घटनाएं नहीं जहाँ पर,
 न तो जहाँ इतिहासों की पदचाप सुनी जाती है;
 जहां प्रनय नीरव, अकम्प, कामना, स्निग्ध, शीतल है,
 अभिलाषाएँ नहीं व्यग्र अपनी ही ज्वालाओं से;
 जहाँ नहीं चरणों के नीचे अरुण सेज मूँगों की,
 न तो तरंगॉ में ऊपर नागिनियाँ लहराती हैं;
 जहाँ नहीं बमती कृशानु सुशमा कपोल, अधरों की,
 न तो छिटकती हैं रह-रह कर चिंगारियाँ त्वचा से;
 स्थापित जहाँ शुभेच्छु, समर्पित हृदय विनम्र त्रिया का,
 
 उद्वेगों से अधिक स्वाद है जहाँ शांति, संयम में;
 एक पात्र में जहाँ क्षीर, मधुरस दोनों संचित हैं,
 छिपे हुए हैं जहां सूर्य-शशधर एक ही हृदय में;
 जहाँ भामिनी नहीं मात्र प्रेयसी विमुग्ध पुरुष की,
 अमृत-दायिनी, बल-विधायिनी माता भी होती है।
 भूल गए क्यों दयित, हाय, उस नीरव, निभृत निलय में,
 बैठी है कोई अखंड व्रतमयी समाराधन में,
 अश्रुमुखी माँगती एक ही भीख त्रिलोक-भरन से,
 क्षण-भर भी मत अकल्याण् हो प्रभो! कभी स्वामी का।
 जो भी हो आपदा, मुझे दो, मैं प्रसन्न सह लूँगी,
 देव! किंतु मत चुभे तुच्छतम कंटक भी प्रियतम को,
 
 किंतु, हाय, हो गई मृषा साधना सकल जीवन की;
 मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करों को;
 चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,
 हतभागी! उठ, जाग, देख, मैं मन्दिर से जाता हूँ।
 याग-यज्ञ, व्रत-अनुष्ठान में, किसी धर्म-साधन में
 मुझे बुलाए बिना नहीं प्रियतम प्रवृत होते थे।
 तो यह अंतिम व्रत कठोर कैसे सन्यास सधेगा
 किए शून्य वामांक, त्याग मुझ सन्यासिनी प्रिया को?
 और त्यागना ही था तो जाते-जाते प्रियतम ने,
 ले लेने दी नहीं धूलि क्यों अंतिम बार पदों की?
 मुझे बुलाए बिना अचानक कैसे चले गए वे?
 अकस्मात ही मैं कैसे मर गई कांत के मन में?
 शुभे! गाँठ यह सदा हृदय-तल में सालती रहेगी,
 मेरा ही सर्वस्व हाय, मुझसे यों बिछुड गया है,
 मानो, उस पर मुझ अभागिनी का अधिकार नहीं हो।
 
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