ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
|
7 पाठकों को प्रिय 205 पाठक हैं |
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
हाय पुत्र! मैं भी जीवन भर बहुत-बहुत प्यासी थी,
शीतल जल का पात्र अधर से पहले पहल लगा है।
तप्त बना मत इसे वीरमणि! द्विधा, ग्लानि, चिंता से।
नहीं देखता, मैं विपन्नता में किस भाँति खड़ी हूँ,
गँवा शतऋतु-सम प्रतापशाली, महान भर्त्ता को,
अंतर से उच्छलित वेदना का विस्फोट दबाकर?
और हाय, तब भी, मैं केवल त्रिया, भीरु नारी हूँ;
रुदन छोड़ विधि ने सिरजा क्या और भाग्य नारी का?
पर, किशोर होने पर भी बेटा! तू वीर नृपति है।
नृपति नहीं टूटते कभी भी निजी विपत्ति-व्यथा से;
अपनी पीड़ा भूल यंत्रणा औरों की हरते हैं।
हँसते हैं, जब किरण हास्य की हो सबके अधरों पर,
रोते हैं, जब प्रजा-जनों के नयन सिक्त होते हैं,
अपनी पीड़ा कहाँ, उसे अपना आनन्द कहाँ है,
जिस पर चढ़ा किरीट, भार दुर्वह् समाज-शासन का?
किंतु, हाय, हो गया यहाँ यह सब क्या एक निमिष में?
महामात्य
घटित हुआ सब, इस प्रकार, मानो, अदृश्य के कर में,
नाच रही हो पराधीन यह सभा दारु-पुतली-सी,
सब की बुद्धि समेट, सभी को अपना पाठ सिखा कर,
यह नाटक दुखांत भाग्य ने स्वयं यहाँ खेला है।
कौन जानता था, अनभ्र ही अशनि आज टूटेगी?
मिला कहाँ आभास देवि! हमको आसन्न विपद का?
कुछ तो भाग्य-अधीन और कुछ महाराज के भय से,
हम स्तम्भित रह गए; गिरा खोलें-खोलें, तब तक तो,
राज-मुकुट नृप से कुमार के सिर पर पहुंच चुका था।
सब कुछ हुआ, मरुत जैसे अम्बर में दौड़ रहे हों,
जैसे कोई आग शुष्क कानन को जला रही हो;
सब कुछ हुआ, देवि! जैसे हम मनुज नहीं, पत्थर हों,
जैसे स्वयं अभाग्य हमें आगे को हाँक रहा हो,
चले गए सम्राट छोड़ हमको अपार विस्मय में,
कह पाए हम कहाँ देवि! जो कुछ हमको कहना था?
|