ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
|
7 पाठकों को प्रिय 205 पाठक हैं |
राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
औशीनरी
हाँ, मैं अभी राज महिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी,
इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था।
किंतु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ।
आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगाकर।
[आयु को हृदय से लगाती है]
कितना भव्य स्वरूप ! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में,
महाराज की आकृतियों का पूरा बिम्ब पड़ा है।
हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से,
मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में।
पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान पुरुषों को
नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उत्तुंग शिखर पर,
बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में,
पाषाणों पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर,
सो तू पला गोद में जिनकी सीमंतिनी-शिखा वे,
और नहीं कोई जाया हैं तपोनिधान च्यवन की;
तप:सिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियो में,
पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था।
हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है!
और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा,
इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से,
जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो?
कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में;
जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की।
और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे,
राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुराकर।
नीरवता रवपूर्न, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है;
बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है?
पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है,
मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का।
उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में,
किंतु, छोड़ कर तुझे, विपद में हमें कौन तारेगा?
मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुस्कान खिलेगी?
तू उबरा यदि नहीं, महाप्लावन से कौन बचेगा?
पिता गए वन, किंतु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है,
बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलों का।
तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से,
बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ।
फला न कोई शस्य, प्रकृति से जो भी अमृत मिला था,
लहर मारता रहा टहनियों में, सूनी डालों में।
किंतु, प्राप्त कर तुझे आज, बस, यही भान होता है,
शस्य-भार से मेरी सब डालियाँ झुकी जाती हों।
|