ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 4
पुरुरवा
देख क्रिया। मंत्रियों! एक क्षण का भी समय नहीं है;
पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राज-तिलक का।
विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है।
मृषा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह-माया का;
इन दैहिक सिद्धियों, कीर्तियों के कंचनावरण में,
भीतर ही भीतर विषण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ!
अंतर्तम के रूदन, अभावों की अव्यक्त गिरा को
कितनी बार श्रवण करके भी मैंने नहीं सुना है!
पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की,
ठहरो आवाहन अनंत के, मूक निनद प्राणों के!
पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ,
दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर,
सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं,
बैठ किसी एकांत, प्रांत, निर्जन कन्दरा, दरी में,
अपना अंतर्गगन रात में उद्भासित करने को,
तो मैं ही क्यों रहूँ सदा तपता मध्याह्न गगन में?
नए सूर्य को क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो।
पहुँच गया मेरा मुहुर्त, किरणें समेट अम्बर से
चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का।
यह लो अपने घूर्णिमान सिर पर से इसे हटाकर
ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ।
लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की।
ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट आयु की जय हो,
महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ।
भाग्य-दोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का;
अब तो केवल प्रजा-धर्म् है, सो, उसको पालूँगा,
जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत का अभ्युदय मनाकर।
यती नि:स्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के?
सभासदो! कालज्ञ आप, सब के सब कर्म-निपुण हैं,
क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यों का?
प्रजा-जनों से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे।
जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था,
उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनों को।
[एक ओर से पुरुरवा का निष्क्रमण: दूसरी ओर से महारानी औशीनरी का प्रवेश]
औशीनरी
चले गए?
सभी सभासद
जय हो अनुकम्पामयी राजमाता की।
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