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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


पुरुरवा
चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ?
देवों को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी!

लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को,
सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है।
और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है,
भरत-शाप की या पुरुरवा के प्रचंड बाणों की।
कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को?
रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को,
स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है।
छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणों से।
दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघों में?
तो मेघों के अंतराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा,
दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरों के;
और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को,
खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है।

लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में
अभी देवताओं के वन में आग लगा देता हूँ।
फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को,
देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का।
और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो,
तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को,
मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा।
वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से,
जब देवों-असुरों ने इसको पहले-पहल मथा था।
और उसी मंथन क्रम में बैठी तरंग-आसन पर,
एक बार फिर पुन: उर्वशी निकलेगी सागर से
बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में,
जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी!

भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरों की,
कितनी बार उन्हें मैंने रण में जय दिलवाई है।
पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा,
आशा है,आप्रलय दाह विशिखों का स्मरण रहेगा;
और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो,
देवों की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है।
उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनों से,
उनका प्रिय सम्राट स्वर्ग से वैर ठान निकला है;
साथ चलें, जिसको किंचित भी प्राण नहीं प्यारे हों।

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