ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
महामात्य
महाराज हों शांत; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है।
तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था,
दो पक्षॉ में बँटे, परस्पर कुपित सुरों-असुरों में।
और सुरों के, उस रण में भी छक्के छूट गए थे।
वह सब होगा पुन:, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का।
पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवों-सुरों में,
किंतु दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे?
मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य सेना में।
सुरता के ध्वंसन से बढ़कर उन्हें और क्या प्रिय है
और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताओं के,
वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिलकर उनसे जूझ रहे हों?
इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है;
मात्र सोचना है, देवों से वैर ठान लेने पर,
पड़ न जाएँ हम कहीं दानवों की अपूत संगति में।
नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्जवल है,
कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है।
डाल न दे शत्रुता सुरों से हमें दनुज-बाँहों में,
महाराज! मैं, इसीलिए, देवों से घबराता हूँ।
पुरुरवा
कायरता की बात ! तुम्हारे मन को सता रही है
भीति इन्द्र के निठुर वज्र की, देवों की माया की;
किंतु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से
मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का।
जब मनुष्य चीखता व्योम का हृदय दरक जाता है
सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से।
और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का,
स्वर्ग, सत्य ही टूट गगन से भू पर आ जाएगा।
क्यों लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं?
बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की,
यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है।
[नेपथ्य से आवाज आती है]
“पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी।
सावधान! देवों से लड़ने में कल्याण नहीं है।
देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के;
तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा,
या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, मलिन है?”
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