| ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 3
 
 पुरुरवा
 रुला दिया तुमने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर।
 सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है
 माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से?
 
 [उर्वशी अदृश्य हो चुकी है।]
 
 महामात्य
 महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवि यहाँ नहीं हैं?
 कहाँ गई? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के?
 
 पुरुरवा
 क्यों, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से?
 किंतु, अभी वे श्रांत-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं;
 जाकर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों,
 शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को।
 
 सुकन्या
 वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है।
 चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी,
 खिंची आपके महाप्रेम के आकुल आकर्षण में।
 भू वंचित हो गई आज उस चिर-नवीन सुषमा से।
 महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी;
 चक्षुराग जब हुआ आपसे, उस विलोल-हृदया ने,
 किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को।
 और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था,
 “भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिंतन में,
 जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की।
 किंतु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के,
 पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी;
 सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा
 अहंकारिणी! तेरा पति तुझसे उत्पन्न तनय को।”
 वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को।
 महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी!
 क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे,
 गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी।
 किंतु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे,
 जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से?
 हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चाताप वृथा है।
 अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है।
 महाराज! सत्य ही आयु का हृदय बहुत प्यासा है।
 
 [पुरुरवा आयु से अलग हो जाता है]
 			
		  			
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