ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
उर्वशी
आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है।
अरी! जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे।
महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है।
(पानी पीती है। दाह अनुभूत होने का भाव)
पुरुरवा
किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!
आप खिन्न हो निज को हतभागी क्यों कहती हैं?
कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में,
छूट गई यदि पुरी, संग होकर हम वहीं चलेंगे।
आप, न जानें, किस चिंता से चूर हुई जाती हैं!
कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?
[प्रतीहारी का प्रवेश]
प्रतीहारी
जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;
कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!
नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है।
पुरुरवा
सती सुकन्या! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?
सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है।
पुण्योदय के बिना संत कब मिलते हैं राजा को?
[सुकन्या और आयु का प्रवेश]
पुरुरवा
इलापुत्र मैं पुरु पदों में नमस्कार करता हूँ।
देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?
आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?
सुकन्या
जय हो, सब है कुशल।
उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने
कहा, “आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!
अत:, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुंचाना होगा,
जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के”।
सो, ले आई, अकस्मात ही, इसे; सुयोग नहीं था,
पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का।
सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौपा था,
उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ।
बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं।
[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरुरवा को प्रणाम करता है। पुरुरवा उसे छाती से लगा लेता है।]
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