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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा

भाग - 2


महामात्य
महाश्चर्य !

एक सभासद
विस्मय अपार !

दूसरा सभासद
यह स्वप्न या कि कविता है,
उज्जवलता में रमे, रूप-ध्यायी, रस-मग्न हृदय की?
और उड्डयन तो नैतिक उन्नति की ही महिमा है।
जो हो, मैं मंगल की शुभ सूचना इसे कहता हूँ।

तीसरा सभासद
शांति! ज्योतिषी विश्वमना गणना में लगे हुए हैं।
सुनें, सिद्ध दैवज्ञ स्वप्न का फल क्या बतलाते हैं।

विश्वमना
हाय, इसी दिन के निमित्त मैं जीवित बचा हुआ था?
महाराज! यदि कहूँ सत्य तो गिरा व्यर्थ होती है।
मृषा कहूँ तो क्यों अब तक आदर पाता आया हूँ?
मुझ विमूढ़ को अत: देव मौन ही आज रहने दें;
क्योंकि दीखता है जो कुछ, उसका आधार नहीं है।

पुरुरवा
किसका है आधार लुप्त? क्या है परिणाम गणित का?
यह प्रहेलिका और अधिक उत्कंठा उपजाती है।
कहें आप संकोच छोड़ कर, जो कुछ भी कहना हो,
गणित मृषा हो भले, आपको मिथ्या कौन कहेगा?

विश्वमना
वरुण करें कल्याण! देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ।
अमिट प्रवज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,
वह आज ही सफल होगा, इसलिए कि प्राण-दशा में
शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं।
अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक
आप प्रव्रजित हो जाएंगे अपने वीर तनय को,
राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर।
पर विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?
अच्छा है, पुत जाए कालिमा ही मेरे आनन पर;
लोग कहें, मर गई जीर्ण हो विद्या विश्वमना की।
इस अनभ्र आपद् से तो अपकीर्ति कहीं सुखकर है।

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