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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 पुरुरवा
 देवि! आप क्यों सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था।
 ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे।
 घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजों में;
 श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर,
 मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की।
 और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशांत बैठा था,
 प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की,
 हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था!
 
 उर्वशी
 दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे,
 उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है,
 लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा।
 
 [पानी पीती है]
 
 पुरुरवा
 देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं।
 मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंस पहुंच सकता है?
 भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है?
 मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था।
 उरु-दंड परिपुष्ट, मध्य कृश, पृथुल, प्रलम्ब भुजाएँ,
 वक्षस्थल उन्नत, प्रशस्त कितना सुभव्य लगता था!
 ऊषा विभासित उदय शैल की, मानो, स्वर्ण-शिला हो।
 उफ री, पय:शुभ्रता उन आयत, अलक्ष्म नयनों की!
 प्राण विकल हो उठे दौड़ कर उसे भेंट लेने को,
 पर, तत्क्षण सब बिला गया, जानें, किस शून्य तिमिर में!
 न तो वहाँ अब ऋषि-कुमार था, न तो कुटीर च्यवन का।
 देखा जिधर, उधर डालों, टहनियों, पुष्पवृंतों पर,
 देवि! आपका यही कुसुम-आनन जगमगा रहा था
 हँसता हुआ, प्रहृष्ट, सत्य ही, सद्य:स्फुटित कमल-सा।
 किंतु, हाय! दुर्भाग्य! जिधर भी बढ़ा स्पर्श करने को,
 डूब गया वह छली पुष्प पत्तों की हरियाली में।
 चकित, भीत, विस्मित, अधीर तब मैं निरस्त माया से,
 अकस्मात उड़ गया छोड-अवनीतल ऊर्ध्व गगन में,
 और तैरता रहा, न जानें, कब तक खंड-जलद-सा।
 जगा, अंत को, जब विभावरी पूरी बीत चुकी थी।
 वह बालक था कौन? कौन मुझको छलने आई थी।
 दिखा उर्वशी का प्रसन्न आनन डाली-डाली में,
 			
		  			
						
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