ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
पुरुरवा
कौन विघ्न किसका? जो है, जो अब होने वाला है,
सब है बद्ध निगूढ, एक ऋत के शाश्वत धागे में;
कहो उसे प्रारब्ध, नियति या लीला सौम्य प्रकृति की।
बीज गिरा जो यहाँ, वृक्ष बनकर अवश्य निकलेगा।
किंतु, भीत मैं नहीं; गर्त के अतल, गहन गह्वर में,
जाना हो तो उसी वीरता से प्रदीप्त जाऊँगा,
जैसे ऊपर विविध व्योम-लोकों में घूम चुका हूँ।
भीति नहीं यह मौन; मूकता में यह सोच रहा हूँ,
अबकी बार भविष्य कौन-सा वेष लिए आता है।
महामात्य
महाराज का मन बलिष्ठ; संकल्प-शुद्ध अंतर है।
जिसकी बाँहों के प्रसाद से सुर अचिंत रहते हैं,
उस अजेय के लिए कहाँ है भय द्यावा-पृथ्वी पर?
प्रभु अभीक ही रहें; किंतु, हे देव! स्वप्न वह क्या था,
जिसकी स्मृति अब तक निषण्ण है स्वामी के प्राणों में?
मन के अलस लेख सपने निद्रा की चित्र-पटी पर,
जल की रेखा के समान बनते-बुझते रहते हैं।
पुरुरवा
देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है,
लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं।
और रोप कर उसे सामने, वहाँ बाह्य प्रांगण में,
सीच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिंताकुल आतुरता से।
मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ;
और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन बिरवे को।
मेरी ओर, परंतु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है,
मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का,
नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो।
तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर,
प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुंच गया हूँ।
किंतु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है,
मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है।
एकाकी, नि:संग भटकता हुआ विपिन निर्जन में,
जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है,
च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी।
उर्वशी
च्यवनाश्रम ! हा ! हंत ! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे।
[अपाला घबरा कर पानी देती है। उर्वशी पानी पीती है।]
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