ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 1
[पुरुरवा, उर्वशी, महामात्य, राज-पंडित, राज-ज्योतिषी, अन्य सभासद, परिचायक और परिचारिकाएँ यथास्थान बैठे या खड़े। राजा की मुद्रा अत्यंत चिंताग्रस्त। आरम्भ में, कई क्षणों तक, कोई कुछ नहीं बोलता]
महामात्य
देव क्षमा हो कुतुक, महामय के विशाल नयनों में,
देख रहा हूँ, आज नई चिंता कुछ घुमड़ रही है।
महाराज जब से आए हैं, मूक, विषण्ण, अचल हैं,
सुखदायक कल रोर रोक, निस्पन्द किए लहरों को,
महासिन्धु क्यों, इस प्रकार, अपने में डूब गया है?
सभा सन्न है, कौन विपद हम पर आने वाली है?
पुरुरवा
कुशल करें अर्यमा, मरुद्गण उतर व्योम-मन्डल से,
अभिषुत सोम ग्रहण करने को आते रहें भुवन में।
वरुण रखें प्रज्वलित निरंतर आहवनीय अनल को,
रहे दृष्टि हम पर अभीष्ट-वर्षी अमोघ मघवा की,
सभासदो! कल रात स्वप्न मैंने विचित्र देखा है।
सभी सभासद
स्वप्न !
पुरुरवा
स्वप्न ही कहो, यद्यपि मेरे मन की आंखों के,
आगे, अब भी, सभी दृश्य वैसे ही घूम रहे हैं,
जैसे, सुप्ति और जागृति के धूमिल, द्वाभ क्षितिज पर,
मैने उन्हें सत्य, चेतना, सुस्पष्ट, स्वच्छ देखा था।
कितनी अद्भुत कथा! दृश्य वह मानव की छलना थी?
या जो मुद्रित पृष्ठ अभी आगे खुलने वाले हैं,
देख गया हूँ उन्हें रात निद्रित भविष्य में जा कर?
कौन कहे, जिसको देखा, वह सारहीन सपना था,
या कि स्वप्न है वह जिसको अब जग कर देख रहा हूँ?
क्या जानें, जागरण स्वप्न है या कि स्वप्न जागृति है?
महामात्य
बड़ी विलक्षण बात! देव ने ऐसा क्या देखा है,
जिससे जागृति और स्वप्न की दूरी बिला रही है,
परछाईं पड़ रही अनागत की आगत के मुख पर,
मुँदी हुई पोथी भविष्य की उन्मीलित लगती है?
देव दया कर कहें स्पष्ट, दुश्चिंत्य स्वप्न वह क्या था?
अश्विद्वय की कृपा, विघ्न जो भी हों, टल जाएँगे।
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