ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
चित्रलेखा
भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!
क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी
उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर,
यम की जिह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?
शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में,
अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को।
माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;
पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो।
और अप्सरा संततियों का पालन कब करती है?
उर्वशी
यों बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं।
सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है।
यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में,
दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है,
जो भी करता सुधापान, उसको रखना पड़ता है,
एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर।
फिर मैं ही क्यों उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?
आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है।
सुकन्या
चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को,
अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में।
रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,
विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं।
दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी।
(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे पुचकारते हुए बोलती जाती है)
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