ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसों को,
प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगों से;
रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलकों में,
कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,
कभी बालकों-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?
तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणों की ध्वनियों का;
उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;
शोणित का वह ज्वलन, अस्थियों में वह चिंगारी-सी,
स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,
मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों।
और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,
किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में।
सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!
विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,
क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!
यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?
पारिजात-द्रुम के फूलों में कहाँ आग होती है?
यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से
अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं।
जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,
ज्यों निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है।
किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखों की!
अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,
यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ।
भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है,
घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,
पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!
जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,
छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में।
उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,
जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है।
हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को,
न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं।
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