ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!
कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!
दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को,
ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!
कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,
जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है।
हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणों में,
कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?
आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,
कौन बात है, जिसे तृणों पर वह लिखती जाती है?
और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलों का!
मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!
पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी,
सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!
झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,
शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो।
किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजों के,
फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरों की,
ज्वार बाँध, किस भांति, बादलों को छूने उठती थी?
कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर,
हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!
और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,
तीर-द्रुमों की छाया में कितनी भोली लगती थी!
लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,
वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर।
आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!
सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,
इसी सरस वसुधा पर मैंने छक कर पान किया है।
व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,
रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है
त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरों में,
धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?
पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी,
उर देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,
रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के।
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