ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 5
सुकन्या (उर्वशी से)
तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी,
सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है।
उर्वशी
आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है।
कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,
दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,
और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में,
जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है।
तब भी, जाने, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?
हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,
अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?
मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की,
तुम्हें छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?
केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;
माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर।
सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!
मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा,
यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?
किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है,
वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर।
अपना सुख तृणवत नगण्य है, उसे छोड़ सकती हूँ।
किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?
देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर,
जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;
गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी,
खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी।
छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,
जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ।
यह धरती, यह गगन, मृगों से भरी, हरी अट्वी यह,
ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे।
झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से,
शस्यों पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,
चहक-चहक उठना वह विहगों का निकुंज-पुंजों में,
स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ,
अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को।
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