ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
चित्रलेखा
किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में,
नाच-नाच कर कौन देवताओं की तपन हरेगी,
काम-लोल कटि के कम्पन, भौहों के संचालन से?
सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवों का?
भस्म-समूहों के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं,
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की,
अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में।
सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?
बिबुध पंचशर के बाणों को मानस पर लेते हैं।
वश में नहीं सुरों के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,
ये भोगते पवित्र भोग औरों में वह्नि जगाकर!
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं।
क्योंकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,
रसलोलुप दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवों की,
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पॉ पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की।
हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराओं की,
कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है।
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