ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणों में अकथ, अपार सुखों की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!
और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,
अंक लगाते ही आंखों की पलकें झुक जाती हैं!
हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!
सुकन्या
क्यों कल क्या होगा?
उर्वशी
कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा।
यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारों से,
कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे।
और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से।
हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,
उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है।
और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी,
दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को,
न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ।
भरत-शाप जितना भी कटु था, अब तक वह वर ही था;
उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है।
सुकन्या
महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं।
यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर
पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?
बाला रहती बँधी मृदुल धागों से शिरिष-सुमन के,
किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,
वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है।
और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?
रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है।
कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में,
किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है,
कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?
कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?
यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है।
पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी,
सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,
और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का।
सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!
इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हें जलाकर।
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