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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;
 सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखॉ का तारा है।
 घुटनों के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा,
 कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के।
 और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा,
 शशकों, गिलहरियों, प्लवंग-शिशुओं, कुरंग-छौनों से
 फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा,
 होमधेनुओं को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में।
 और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा,
 सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का।
 फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर,
 बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा।
 हवन-धूम से आंखों में जब वाष्प उमड़ आएँगे
 तब मैं दोनों नयन पोंछ दूँगी अपने अंचल से।
 शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से,
 जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,
 पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में।
 तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,
 चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है।
 
 उर्वशी
 तो मैं चली।
 
 सुकन्या
 कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?
 
 उर्वशी
 उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;
 प्राणों को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ।
 “पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?”
 सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं।
 अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में।
 
 [उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]
						
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