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			 ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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			 205 पाठक हैं  | 
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
 ”और नारियों में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को,
 देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है।
 कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!
 “देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदों के वश में;
 चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी
 जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो।
 आकृति ओंप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावों से;
 फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,
 विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों।
 दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;
 देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;
 यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है।”
 
 निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना
 किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?
 जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं।
 मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,
 लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से।
 सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का।
 कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?
 कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?”
 
 और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,
 बोले थे, “उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,
 पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?
 तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर
 दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,
 और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में,
 याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की।
 बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,
 उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है।
  
 दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!
 नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर
 नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं।
 नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर
 महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है।
 			
		  			
						
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