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ई-पुस्तकें >> उर्वशी

उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?
यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है।
सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;
और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,
जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का।
शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं।
महापुरुष की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;
किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का,
मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताओं को?
तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है।”

(उर्वशी का प्रवेश)

उर्वशी चित्रलेखा से-
अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!
अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियों से,
च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?

चित्रलेखा
मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो
राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से
मनुजों का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है।
हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?

उर्वशी

बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?
नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?

चित्रलेखा
कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,
प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?

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