लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> उर्वशी

उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

205 पाठक हैं

राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा

भाग - 3


चित्रलेखा
उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!
मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है।
जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखों में।
पर मैं क्यों, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?
प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!
च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ,
उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से।
नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,
सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है।

सुकन्या
पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;
मन की रचना में निविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का।
किंतु, नारियों पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,
और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुओं पर।
कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावों से;
अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;
जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!
स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,
अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,
क्योंकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है।

“जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,
उस अदोष नर के हाथों में कोई मैल नहीं है।”

जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को,
ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?
और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में,
शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है,
चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरों पर,
बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book