ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 2
सुकन्या
सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो।
विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियों का?
पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,
ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?
अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताओं के,
जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है
हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,
न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है
एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,
दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों।
फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?
एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं।
मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुओं को;
एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं।
अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,
उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है
निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से।
चित्रलेखा
सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है,
क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,
तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियों को,
जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं।
किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से,
मुनिसत्तम खन्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?
क्रुद्ध तापसों से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं।
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