ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
सुकन्या
डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतूहल से ही
मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की।
पर, नयनों के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,
लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हों,
और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को।
रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना,
खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीडिता, असंज्ञ मृगी-सी,
जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखों में।
पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनों का,
परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में,
मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो,
नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से।
सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;
लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का,
ज्यों ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं,
पट सँभाल कर खड़ी देखने लगी बंक लोचन से,
अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर।
अनुद्विग्न हो उठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से,
सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?
सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?
कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की,
दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?
“वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर,
शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा
प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा।
डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है।
पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,
स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी।
सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,
अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?
”मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;
शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ।
हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,
शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा।”
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