ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
सुकन्या
एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगों का?
मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं।
योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;
गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,
जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है।
क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?
शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!
किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में,
जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी,
नए-नए फूलों पर नित उड़ती फिरनेवाली को?
नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,
तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषों को?
और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?
स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,
धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है।
पर, ये चित्र अचिर; भौहों के धनुष सिकुड़ जाएँगे,
छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलों की।
और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है।
पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी।
तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,
जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के
और भित्तियों के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है।
टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है।
इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,
किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;
न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगों पर,
क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;
बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे,
अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारों में।
चित्रलेखा
कौन लक्ष्य?
सुकन्या
जिसको भी समझो।
चित्रलेखा
मैं तो तृषित नहीं हूँ,
न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणों के।
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,
जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,
खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा।
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