ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
चित्रलेखा
यही गर्व मुझको भी,
हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषों पर,
बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,
न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;
प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से
उसी महासुख की चोटी पर चढे हुए रहते हैं,
जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखों को।
तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने,
मात्र तुम्हें ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियों को,
अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है।
और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने,
दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है।
एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है
होकर बीचोंबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमों के
जिन वृक्षों ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है।
और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में
दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं,
प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;
मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;
दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,
बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है।
मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?
तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है।
बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में
केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है।
धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहों में
आंख मूंद रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,
जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरों पर।
धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपोंषित रहकर
जठरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं।
सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?
उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!
सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;
पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है।
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