ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 1
सुकन्या
अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,
अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यों उचट गई है,
मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है
जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर।
यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,
जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का,
या देवता-समान मात्र गन्धों का प्रेमी होगा?
चित्रलेखा
मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं,
खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी।
और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में,
भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते; और पावस में,
कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है।
सुकन्या
और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की
क्या होतीहै दशा?
चित्रलेखा
तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?
योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को,
रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,
मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,
ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर
भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,
ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?
सुकन्या
किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर
ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!
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