ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है।
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शांति की छाया में,
आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रुधिर में, काया में।
परिरम्भ पाश में बँधे हुए उस अम्बर तक उठ जाओ रे!
देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
चिंतन की लहरों के समान सौन्दर्य-लहर में भी है बल,
सातों अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारी का स्वर्णांचल।
जिस मधुर भूमिका में जन को दर्शन-तरंग पहुंचाती है,
उस दिव्य लोक तक हमें प्रेम की नाव सहज ले जाती है।
ओ शून्य पवन में मुझे देख चुम्बन अर्पित करने वालों!
सम्पूर्ण निशा मेरी छवि का उन्निद्र ध्यान धरने वालो!
मैं देश-काल से परे चिरंतन नारी हूँ।
मै आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा,
रूपसी अमर मैं चिर-युवती सुकुमारी हूँ।
तुम त्रिभुवन में अथवा त्रिकाल में जहाँ कहीं भी हो,
अंतर में धैर्य धरो।
सरिता, समुद्र, गिरि, वन मेरे व्यवधान नहीं।
मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;
मैं विश्वप्रिया।
तुम पंथ जोहते रहो,
अचानक किसी रात मैं आऊँगी।
अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,
मैं तुम्हें वक्ष से लगा,
युगों की संचित तपन मिटाऊँगी।
पुरुरवा
आवेशित उद्गार यही मर्मों का उद्घाटन है?
हुआ स्रस्त कितना रहस्यमय अवगुंठन माया का?
पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;
मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो।
अब भी तो तुम दीख रहीं निष्कलुष आदि ऊषा-सी,
शुभ्र वह्नि-सी जो अरणी से अभी-अभी फूटी हो;
युग-युग की प्रेयसी हेम-सी जिसकी शुभ्र त्वचा पर,
कहीं काल के स्पर्श याकि ऊँगली का दाग नहीं है।
एक कोमल स्पर्श कोमल गीतों से भरी हुई उँगली का,
तंत्री से नव निनद, नई झंकार उमड़ पड़ती है;
धरती हो ये अरुण पुष्प-से पद जिस किसी दिशा में,
जग उठते हैं नये पुंस कम्पित नव ईहाओं से।
तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखंड त्रिभुवन की,
सभी युगों से, सभी दिशाओं से चल कर आई हो;
इसीलिए, तुम विविध जन्म-कुंजों में पुलक जगाकर
सभी दिशाओं, सभी युगों को पुन: लौट जाओगी।
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